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________________ २२२ प्रमेयकमलमार्तण्डे विशेषगुणाश्रिता जातिः सन्तानत्वम् तहि द्रव्यविशेषे प्रदीपदृष्टान्ते तस्याऽसम्भवात्साधनविकलो दृष्टान्तः । न च सन्तानत्वं परमपरं वा सामान्यं सर्वथा भिन्न बुद्ध्यादिषु वृत्तिमत्प्रसिद्धम्; तवृत्त समवायस्य प्रतिषिद्धत्वात् इति स्वरूपासिद्धत्वम् ।। अथ विशेषरूपम्; तत्राप्युपादानोपादेयभूतबुद्ध्यादिलक्षणक्षणविशेषरूपम्, पूर्वापरसमानजातीयक्षणप्रवाहमात्ररूपं वा ? प्रथमपक्षे सन्तानत्वस्यासाधारणानेकान्तिकत्वं तथाभूतस्यास्या होते हुए भी परसामान्यरूप संतानत्व हेतु रहता है । दूसरी बात यह है कि इस हेतुको सामान्यरूप स्वीकार करे तो यह हेतु “सत् है सत् है" इतना ही ज्ञान करा सकेगा यह संतान है ऐसा ज्ञान नहीं करा सकता । विशेष गुणोंके आश्रित रहने वाले अपरसामान्य रूपको संतानत्व कहते हैं ऐसा द्वितीय विकल्प माने तो उक्त अनुमान में दिया गया दृष्टांत साधन विकल [हेतुसे रहित ] होता है अर्थात् संतानपना होनेके कारण बुद्धि आदि गुणोंकी संतान नष्ट होती है, जैसे दीपककी संतान नष्ट होती है, इस दीपकके दृष्टांतमें हेतुका अभाव है क्योंकि संतानत्वका अर्थ विशेषगुणके आश्रयमें रहनेवाला अपर सामान्यरूप किया है, सो ऐसा अपर सामान्यरूप विशेष गुणाश्रित संतानत्व दीपकरूप द्रव्यमें नहीं रहता । दूसरी बात यह है कि सर्वथा भिन्न पर सामान्यरूप संतानत्व अथवा अपर सामान्यरूप संतानत्व बुद्धि आदिमें रहना असिद्ध भी है, समवाय से बुद्धि आदिमें रहना भी अशक्य है क्योंकि समवायका निरसन हो चुका है, इसप्रकार संतानत्व हेतु स्वरूपासिद्ध दोष युक्त भी होता है । भावार्थ-जिस हेतुका स्वरूप सिद्ध न हो उसे स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं, प्रकृतमें संतानत्व हेतुका स्वरूप भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि पर सामान्य या अपर सामान्यरूप संतानत्व बुद्धि आदि गुणोंमें समवाय सम्बन्धसे रहता है ऐसा वैशेषिक ने कहा, किन्तु समवाय नामा पदार्थका पहले खंडन हो चुका है, जब समवायका ही आस्तित्व नहीं है तब उसके द्वारा संतानत्वका बुद्धि आदि गुणमें रहना भी किसप्रकार संभव है ? अतः यह हेतु स्वरूपासिद्ध दोष युक्त है । संतानत्व हेतु विशेषरूप है ऐसा द्वितीय विकल्प माने तो वह विशेष कौनसा है उपादान उपादेय भूत बुद्धि आदि लक्षण वाले क्षण विशेष रूप है अथवा पूर्वापर समान जातीय क्षणोंका प्रवाह रूप है ? प्रथम पक्ष माने तो संतानत्व हेतु असाधारण अनेकान्तिक दोष युक्त होगा, क्योंकि ऐसा हेतु अन्यत्र [ प्रदीप दृष्टांतमें ] नहीं पाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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