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________________ २१६ प्रमेयकमलमार्तण्डे ज्ञानादुत्तरोत्तरं सातिशयं कथमुत्पद्य त ? तत्कथं योगिनां सकलकल्पनाविकलज्ञानसम्भव इति ? यच्च 'सन्तानोच्छित्तिनिःश्रेयसम्' इति मतम्; तत्र निर्हेतुकतया विनाशस्योपायवैयर्थ्यमयत्नसिद्धत्वादिति । अन्ये त्वनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशेऽक्षयशरीरादिलाभो निःश्रेयसमिति मन्यन्ते । तथाहिनित्यत्वभावनायां ग्रहोऽनित्यत्वे च द्वेष इत्युभयपरिहारार्थमनेकान्तभावना; इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम्; मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वायोगात् । अनेकान्तज्ञानं मिथ्यैव विरोधवैयधिकरण्याद्यनेकबाधकोपनिपातात् । स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिषु चासत्त्वम् इतरेतराभावादिष्यते एव । स्वकार्येषु कर्तृत्वं कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते, यद्यस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यामुत्पत्ती व्याप्रियमाणमुपलब्धं तत्तस्य बौद्ध-एक ज्ञानमें अभ्यास द्वारा अतिशय नहीं आता किन्तु उत्तरोत्तरज्ञानमें आता है, संतानकी अपेक्षा अतिशयाधायकत्व होना बन जाता है। वैशेषिक-यह कथन भी ठीक नहीं, संतानका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता, तथा अविशिष्ट ज्ञानसे [सराग ज्ञानसे] विशिष्ट ज्ञान [विशुद्ध ज्ञान ] उत्पन्न होना भी अशक्य है, सामान्यरूप पूर्वज्ञानसे उत्तरोत्तर विशेषरूप सातिशय ज्ञान किसप्रकार उत्पन्न किये जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं किये जा सकते । अतः संपूर्ण कल्पना जालसे रहित ऐसा विशुद्धज्ञान योगियोंके होता है ऐसा कहना प्रसिद्ध है । बौद्धमतमें ही कोई विद्वान् संतानकी व्युच्छित्ति [नाश] होना मोक्ष है ऐसा कहते हैं उसमें भी विशिष्ट भावनारूप अभ्यास होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि नाशको निर्हेतुक माननेसे उसके उपायभूत अभ्यासका करना व्यर्थ ही ठहरता है, वह तो विना प्रयत्नके स्वतः ही होता है । जैनमतमें अनेकान्तकी भावनासे विशिष्ट प्रदेशमें [सिद्ध शिलापर] ज्ञानरूप शरीरादिका लाभ होना मोक्ष है ऐसा मोक्षका स्वरूप माना गया है, उनका कहना है कि नित्यधर्ममें अाग्रह और अनित्यधर्ममें द्वेष ये दोनों ही अयुक्त हैं अतः दोनोंका परिहार करके अनेक धर्मरूप अनेकांत माना है और उस तात्विक अनेकांतकी भावनासे मोक्षकी प्राप्ति होना स्वीकार किया गया है । किन्तु यह अभिमत भी असत् है, मिथ्याज्ञान मोक्षका हेतु हो नहीं सकता, अनेकांतका ज्ञान मिथ्या ही है क्योंकि उसमें विरोध, वैयधिकरण आदि अनेक बाधक कारण हैं । जैन एक ही वस्तुमें सत्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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