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________________ २१० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रवर्त्तते, अस्मदादीन्द्रियजप्रत्यक्षस्यात्र व्यापारानुपलम्भात् । 'योगिप्रत्यक्षं त्वेवं प्रवर्ततेऽन्यथा वा' इत्यद्यापि विवादपदापन्नम् । यच्चात्मा सुखस्वभाव इत्यनुमानं तदपि न नित्यसुखस्वभावतासाधकम्; सुखस्वभावतामात्रस्यैवातः प्रसिद्धः। किञ्च, सुखस्वभावत्वं सुखत्वजातिसम्बन्धित्वम्; तन्नात्मनि सम्भाव्यते गुणे एवास्योपलम्भात् । न ह्य का काचिजाति व्यगुणयोः साधारणोपलभ्यते । अथ सुखाधिकरणत्वम्; तन्न; अस्य नित्यानित्यविकल्पानुपपत्तेः । तथा सुखत्वस्य सुखस्य वाधिकरणतायां तज्ज्ञानस्यापि नित्यानित्यविकल्प: समानः । सुखके ग्राहक रूपसे या अग्राहक रूपसे प्रवृत्त होता है ] यह अधादि विवादके कोटीमें है। अात्मा सुख स्वभावी है इत्यादि रूपसे वेदांती द्वारा उपस्थित किया गया अनुमान प्रमाण भी नित्य सुखके स्वभावताका साधक नहीं है उससे तो मात्र सुख स्वभावता की सिद्धि हो सकती है । तथा सुखत्व जातिका सम्बन्ध होना सुखस्वभावत्व कहलाता है वह आत्मामें संभावित नहीं हो सकता, गुणमें ही संभावित होता है, कोई ऐसी एक जाति नहीं है जो गुण और द्रव्य दोनोंमें संभावित हो । आत्मा सुखका अधिकरणभूत है ऐसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि इस पक्षमें भी नित्य ही अधिकरणभूत है अथवा अनित्य अधिकरणभूत है इत्यादि विकल्प होकर कुछ भी सिद्ध नहीं होता । आत्मा सुख या सुखत्व सामान्यका अधिकरण है ऐसा स्वीकार करने में दूसरा दोष यह आता है कि उस सुखका संवेदन नित्य होता है अथवा अनित्य इत्यादि विकल्पोंका समाधान नहीं होता है। आत्माको सुखस्वभावी सिद्ध करनेके लिये दिये गये अनुमानमें अत्यन्त प्रिय बुद्धि विषयत्व और अनन्यपरतया उपादीय मानत्व हेतु भी अनेकांतिक होनेसे हेत्वाभासरूप हैं, क्योंकि अत्यन्त प्रियबुद्धि विषयत्वरूप हेतु दुःखके अभावमें भी पाया जाता है, इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-आत्मा सुख स्वभावी है, क्योंकि वह अत्यन्त प्रिय बुद्धिका विषय है ऐसा आप वेदांती द्वारा अनुमान प्रयुक्त हुआ था सो इस अनुमानका अत्यन्त प्रियबुद्धि विषयत्वनामा हेतु सुखस्वभावी साध्यके समान दुःखाभावरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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