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________________ मोक्षस्वरूपविचारः २०७ वैषयिकं सुखम्, तथा चात्मा एवंविधः तस्मात्सुखस्वभावः' इत्यनुमानाच्चास्यानन्दस्वभावताप्रतीतिः; इत्यप्यसाम्प्रतम्; यतस्तत्सुखं नित्यम्, अनित्यं वा ? न तावदनित्यम्; तत्स्वभावतयात्मनोप्य नित्यत्वप्रसङ्गात् । नित्यं चेत्; तत्संवेदनमपि नित्यम्, अनित्यं वा ? यदि नित्यम्; मुक्त तरावस्थयोरविशेषप्रसङ्गः तत्सुखसंवेदनयोनित्यत्वेनोभयत्र सत्त्वाविशेषात् । स्मरणानुपपत्तिश्च; अनुभवस्यैवावस्थानात् । संस्कारानुपपत्तिश्च; अनुभवस्य निरतिशयत्वात् । करणजन्यसुखेन चास्य संसारावस्थायां साहचर्यग्रहणप्रसङ्गात् सुखद्वयोपलम्भः सदा स्यात् । अथ धर्माधर्मफलेन सुखादिना शरीरादिना वा नित्यसुखसंवेदनस्य प्रतिबद्धत्वेनानुभवाभावान्न मुक्त तरावस्थयोरविशेषः सदा सुखद्वयोपलम्भो वा; तदयुक्तम्; शरीरादेः सुखार्थत्वेन तत्प्रतिबन्धकत्वायोगात् । न हि यद्यदर्थं तत्तस्यैव प्रतिबन्धकं युक्तम् । नापि वैषयिकसुखाद्यनुभवेन तत्प्रतिबन्धः । ___ वैशेषिक-यह वेदांतीका कथन ठीक नहीं है, आत्माका सुख अनित्य है या नित्य, अनित्य मानना अशक्य है, क्योंकि आत्माके सुखस्वभावको अनित्य स्वीकार करनेपर आत्मा भी अनित्य होवेगा । उस सुखको नित्य स्वीकार करे तो प्रश्न होता है कि उस सुखका अनुभव नित्य ही होता है या अनित्य ? नित्य होनेपर मुक्त और संसार इन दोनों अवस्थाोंमें भेद नहीं रहेगा, क्योंकि सुख और सुखानुभव दोनों नित्य होनेसे उभयत्र अवस्थानोंमें उनका अस्तित्व समान ही है । अब यदि संसार अवस्थामें भी सुखानुभव सदा हो रहा है तो उसका स्मृति रूप ज्ञान कैसे होवेगा ? क्योंकि अनुभवरूप प्रत्यक्षज्ञान सदा विद्यमान है। संस्कार रूप ज्ञान भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि अनुभवमें निरतिशयता है [सदा एकता है किन्तु संसारी जीवोंमें धारणा रूप संस्कार अवश्य पाया जाता है । संसार अवस्था इन्द्रिय जन्य सुख विद्यमान रहनेसे नित्यसुखके साथ इसका ग्रहण भी अवश्यंभावी है अतः सदा दो सुखोंकी उपलब्धि होनेका अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होता है । शंका-धर्म अधर्मके फल स्वरूप सुखादि एवं शरीरादिके द्वारा नित्य सुखका संवेदन प्रतिहत होता है अतः उसके अनुभव का अभाव होनेसे मुक्तावस्था और संसारावस्थामें समानताका प्रसंग या सदा दो सुखानुभवका प्रसंग प्राप्त नहीं होता ? __ समाधान-यह कथन अयुक्त है, शरीरादिक तो सुखके सहायभूत है “भोगायतनशरीरम्" अतः शरीरादिको सुखका प्रतिबंधक कहना असत् है । जो जिसके लिये है वह उसका प्रतिबंधक नहीं होता । विषय जन्य सुखादिके अनुभव द्वारा नित्य सुखका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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