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________________ २०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे धर्मयोरनुत्पत्तिः । प्रारब्धशरीरेन्द्रियविषयकार्ययोस्तु सुखदुःखफलोपभोगात्प्रक्षयः । अनारब्धतत्कार्ययोरप्यवस्थितयोस्तत्फलोपभोगादेव प्रक्षयः । तथा चागमः "नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" [ ] इति । __ अनुमानं च, पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते कर्मत्वात् प्रारब्धशरीरकर्मवत् । न चोपभोगाप्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यं भावात्संसारानुच्छेदः; समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्मसामोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाप्ताशेषभोगस्योपात्तकर्मप्रक्षयात्; भाविकर्मोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनितानुसन्धानविकलत्वाच्च संसारोच्छेदोपपत्तः । अनुसन्धानं हि रागद्वेषौ 'अनुसन्धीयते गतं चित्तमाभ्याम्' इति व्युत्पत्तः। न च मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवासम्भवाद्भोगानुपपत्तिः; तदुपभोगं विना संतानोच्छेद तो संभव है किन्तु मिथ्याज्ञानद्वारा सम्यग्ज्ञानका संतानोच्छेद होना संभव नहीं है, उसका कारण यह है कि सम्यग्ज्ञान बलशाली है । जब मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है तब तन्निमित्तक रागद्वष भी उत्पन्न नहीं हो पाते, क्योंकि कारणके अभावमें कार्य नहीं होता, रागादिके अभावमें मन वचन कार्यका प्रयत्न समाप्त होता है उसके अभावमें धर्म अधर्म नष्ट हो जाते हैं । वर्तमान में जो धर्म अधर्मका कार्यरूप शरीर इन्द्रियादि हैं उनका सुखदुःख रूप फल भोगकर नाश हो जाता है । वर्तमानमें जिनका कार्य प्रारंभ नहीं हुआ है ऐसे धर्म अधर्म अात्मा में अवस्थित रहते हैं, उनका नाश तो फल भोगनेके अनंतर होगा “नामुक्त क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतै रपि' ऐसा आगम वाक्य भी पाया जाता है । इसका समर्थक अनुमान प्रमाण-पूर्व संचित कर्म उपभोग द्वारा ही नष्ट होता है, क्योंकि वह कर्मरूप है, जैसे जिसने शरीर पादिरूप फल देना प्रारंभ कर दिया है वह कर्म भोगकर नष्ट होता है। कर्म उपभोग द्वारा ही नष्ट होता है ऐसा एकांत माने तो जब उपभोग करते हैं तब अन्य कर्म अवश्य बंधता है अतः संसार भ्रमणका नाश कैसे होगा ? ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये, अन्य कर्म नहीं बंधनेका कारण यह होता है कि प्रथम तो समाधि के बलसे जिसको तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा पुरुष कर्मकी सामर्थ्यको जानकर युगपत् संपूर्ण शरीरोंका निर्माण करके अखिल कर्मोंका भोग कर लेता है, उस क्रियासे पूर्वकृत कर्म नष्ट होते हैं और आगामी कर्मोंकी उत्पत्तिका कारण जो मिथ्याज्ञान एवं तज्जन्य अनुसंधान [विकार] है वह तत्वज्ञानके सद्भावमें रहता नहीं, इसप्रकार उस पुरुषके संसार का उच्छेद हो जाता है । यहां अनुसंधान शब्दका अर्थ रागद्वेष है, “अनुसंधीयते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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