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[१५] वाच्य वाचक सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिये कहा गया है कि "सहज योग्यता संकेत वशाद् हि शब्दादयः वस्तु प्रतिपत्ति हेतवः" बौद्ध शब्द और अर्थ में ऐसा वाच्य वाचक सम्बन्ध नहीं मानते, उनका कहना है कि ये दोनों भी क्षणिक हैं अतः शब्द द्वारा अर्थबोध नहीं होता इत्यादि । किन्तु यह कथन असत् है, प्रथम बात तो यह कि शब्द बिलकुल क्षणिक एक समय मात्र का नहीं है अपितु कुछ समय स्थायी है, और पदार्थ तो क्षणिक है नहीं वह चिरकाल स्थायी है, दूसरे शब्द के अनित्यत्व होने पर भी तज्जन्य ज्ञान द्वारा वाच्यार्थ बोध होता ही है । अतः संकेत और स्वाभाविक योग्यता के कारण शास्त्रीय या लौकिक शब्द (वचन) अर्थ के वाचक होते हैं इनमें बाच्य वाचक लक्षण सम्बन्ध है ऐसा मानना चाहिए।
अपोहवाद-बौद्ध का कहना है कि शब्द घटादि वाच्यार्थ को न कहकर अपोह को कहते हैं अर्थात् गो शब्द सास्नादिमान् पदार्थ को नहीं कहता किन्तु गो से अन्य जो अश्वादि हैं उनसे व्यावृत्ति कराता है इसे अगो व्यावृत्ति कहते हैं, ऐसे घट पट इत्यादि शब्दों द्वारा अन्य का अपोह अर्थात् अघट व्यावृत्ति अपट व्यावृत्ति मात्र की जाती है । शब्दों को अर्थों का वाचक इसलिये नहीं मानते कि अर्थ के अभाव में भी शब्द की उपलब्धि पायी जाती है। बौद्ध का यह मंतव्य सर्वथा असंगत है क्योंकि प्रतीति के विरुद्ध है, गो शब्द को सुनते ही हमें सीधे सास्नादिमान् पदार्थ की प्रतीति होती न कि अन्य की व्यावृत्ति की । कोई कोई शब्द अर्थ के अभाव में उपलब्ध होते हैं अतः सभी शब्दों को अर्थाभिधायक नहीं मानना तो अनुचित ही है अन्यथा कोई कोई गोपाल घटिकादिका धूम अग्नि के अभाव में उपलब्ध होता है अतः उसे भी अग्नि का कार्य नहीं मानना चाहिये न अग्नि का अनुमापक ही। जब हमें गो शब्द सुनते ही तदर्थ वाच्य की प्रतीति होती है तब कैसे कह सकते कि शब्द अर्थ का वाचक न होकर केवल अन्य का व्यावतक ही है ! यदि कहा जाय कि शब्द अन्य की व्यावृत्ति पूर्वक स्ववाच्य को कहता है तो यह मान्यता भी असंगत है क्योंकि एक ही शब्द अगो का निषेध और गो की विधि इस प्रकार विरुद्ध दो अर्थों को कह नहीं सकता न ऐसी प्रतीति ही होती है । तथा यदि गो शब्द अन्य की व्यावृत्ति कराता है ऐसा माना जाय तो गो से अन्य पदार्थ तो असंख्य हैं उनको जाने बिना व्यावृत्ति कैसे हो सकती है ? गवादि शब्द केवल अगो आदि का निषेध ही करते हैं तो "न गौः अगौः” इस प्रकार के नञ समास का अर्थ क्या प्रसज्य प्रतिषेध रूप है अथवा पर्यु दास प्रतिषेध रूप
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