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________________ कवलाहारविचारः च रिरंसा प्रतिपक्षभावनातो निवर्त्तते तथा बुभुक्षापि । प्रयोगः-भोजनाकांक्षा प्रतिपक्षभावनातो निवर्त्तते आकांक्षात्वात् स्याद्याकांक्षावत् । नन्वस्तुतद्भावनाकाले तन्निवृत्तिः, पुनस्तदभावे प्रवृत्तिरित्येतत् स्त्र्याद्याकांक्षायामपि समानम् । यथा चास्याश्चेतसः प्रतिपक्षभावनामयत्वादत्यन्त निवृत्तिस्तथा प्रकृताकांक्षाया अपि । अथाकांक्षारूपा क्षुन्न भवति, तेन वीतमोहेप्यस्याः सम्भवः; तदप्ययुक्तम्; अनाकांक्षारूपत्वेप्यस्या दुःखरूपतयाऽनन्तसुखे भगवत्यसम्भवात् । तथाहि-यत्र यद्विरोधि बलवदस्ति न तत्राभ्युदितकारणमपि तद्भवति यथाऽत्युष्णप्रदेशे शीतम्, अस्ति च क्षुद्दुःखविरोधि बलवत् केवलिन्यनन्तसुखम् । तथा यत्कार्य विरोध्यनिवर्त्य यत्रास्ति तत्र तदविकलमपि स्वकार्य न करोति यथा श्लेष्मादिविरुद्धानिवर्त्य पित्तविकाराक्रान्ते न दध्यादि श्लेष्मादि करोति, वेद्यफल विरुद्धाऽनिवर्त्यसुखं च भगवतीति । तो बुभुक्षा होती ही है ? सो यह नियम स्त्री संबंधी आकांक्षामें भी घटित होगा, अर्थात् जब वैराग्य भावना रहती है तब रिरंसा नहीं होती और जब वह भावना नहीं रहती तब उन केवलीके स्त्री अभिलाषा हो जाती है ऐसा अनिष्ट एवं विपरीत माननेका प्रसंग उपस्थित होता है । अतः जिसप्रकार भगवानमें प्रतिपक्ष भावनाद्वारा रिरंसाका अत्यन्ताभाव स्वीकार करते हैं उसीप्रकार भोजन इच्छाका भी अत्यन्ताभाव स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है। श्वेताम्बर-आकांक्षारूप क्षुधा तो केवलोके नहीं होती किन्तु अनाकांक्षा रूप क्षुधा होती है, ऐसी क्षुधा वीतरागीमें भी संभव है ? दिगम्बर-यह बात असत् है, अनाकांक्षारूप क्षुधा माने तो वह भी दुःखरूप होनेके कारण अनंत सुख स्वरूप भगवानमें होना असंभव है, जहांपर जिसका विरोधी बलवान हो जाता है वहां पर कारणके रहते हुए भी वह धर्म नहीं होता, जैसे अति उष्ण प्रदेशमें शीतलता नहीं रहती । केवली भगवान में भी क्षुधाका बलवान विरोधी अनंत सुख विद्यमान है अतः क्षुधा बाधा नहीं हो सकती । दूसरा अनुमान प्रमाण भी है कि जिसके कार्यका विरोधी अनिवर्त्य रहता है वह अविकल रहते हुए भी स्वकार्यको नहीं कर पाता, जैसे श्लेष्मा आदिका जो विरोधी है एवं अनिवर्त्य है [ हटाने योग्य नहीं है ] ऐसा पित्तका विकार जब किसी व्यक्तिके हो जाता है तब उस व्यक्ति को दही अादि पदार्थ श्लेष्माकारक नहीं हो पाते हैं, वैसे ही वेदनीय कर्मके फलका विरोधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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