SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ प्रमेयकमलमातण्डे कारणता; अविद्यमानकार्यत्वात् । यद विद्यमानकार्यं तन्न कारणम् यथात्मा, अविद्यमानकायं च प्रधान मिति । क्षीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां पश्चादिवोपलम्भप्रसंगश्च । अथ कथंचिच्छक्तिरूपेण सत्कार्यम्; ननु शक्तिद्रव्यमेव, तद् पतया सतः पर्यायरूपतया चासतो घटादेरुत्पत्त्यभ्युपगमे जिनपतिमतानुसरणप्रसङ्गः। किंच, तच्छक्तिरूपं दध्यादेभिन्नम्, अभिन्न वा ? भिन्न चेत् कथं कारणे कार्यसद्भावसिद्धिः? कार्यव्यतिरिक्तस्य शक्त्याख्यपदार्थान्तरस्यैव सद्भावाभ्युपगमात् । आविर्भूतविशिष्टरसादिगुणोपेतं हि वस्तु दध्यादि कार्यमुच्यते । तच्च क्षीराद्यवस्थायामुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेर्नास्ति । यच्चास्ति शक्ति द्यमान हैं। जिसका कार्य अविद्यमान होता है वह कारण नहीं कहलाता, जैसे आत्माके कारणपना नहीं है, प्रधानका कार्य भी अविद्यमान है अत: वह कारण नहीं है । तथा यदि कारणमें कार्य मौजूद रहता है तो दुग्धादि अवस्थामें भी दही आदि पश्चात् के समान उपलब्ध होने चाहिये । शंका-कथंचित् शक्तिकी अपेक्षा कार्यको सत् माना जाय ? समाधान-शक्ति तो द्रव्य ही है, उस द्रव्यरूपसे सत् और पर्याय रूपसे असत् ऐसे घटादि कार्यकी उत्पत्ति होना स्वीकार करे तो जिनेन्द्र मतका अनुसरण हो जाता है। और वह शक्ति दही आदि से भिन्न है कि अभिन्न है ? भिन्न है तो कारणमें कार्यका सद्भाव किसप्रकार सिद्ध होगा ? क्योंकि कार्यसे अतिरिक्त शक्ति नामके पदार्थांतर का ही सद्भाव स्वीकार किया गया। जिसमें विशिष्ट रसादिगुण प्रगट हुआ है ऐसी दही आदि वस्तु कार्य कहलाती है, और वह कार्य दुग्धादि अवस्थामें उपलब्धि लक्षण प्राप्त होकर भी अनुपलब्ध रहता है तो वह नहीं है, तथा जो शक्तिरूप है उसे कार्य ही नहीं कहते हैं, क्योंकि अन्यके सद्भावमें अन्य किसीका होना सिद्ध नहीं होता, अन्यथा अतिप्रसंग आता है । शक्तिका रूप उससे अभिन्न है ऐसा द्वितीयपक्ष लेते हैं तो दही आदिका नित्यपना सिद्ध होनेसे उनके लिये कारण व्यापार की आवश्यकता नहीं रहती है। शंका-सत्कार्यकी अभिव्यक्ति करने में कारणोंका व्यापार होना आवश्यक है अतः वह व्यर्थ नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy