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________________ प्रकृतिकत्तत्ववादः १५३ इतवास्ति प्रधानं वैश्वरूप्यस्याविभागात् । वैश्वरूप्यं हि लोकत्रयमभिधीयते । तच्च प्रलयकाले क्वचिदविभागं गच्छति । उक्तं च प्राक् - 'पंचभूतानि पंचसु तन्मात्रेष्वविभागं गच्छन्ति' इत्यादि । विभागो हि नामाविवेकः । यथा क्षीरावस्थायाम् अन्यत्क्षीरमन्यद्दधि' इति विवेको न शक्यते कत्तु तद्वत्प्रलयकाले व्यक्तमिदमव्यक्तं चेदमिति । श्रतो मन्यामहेऽस्ति प्रधानं यत्र महदाद्यऽविभागं गच्छतीति । अत्र प्रतिविधीयते - प्रकृत्यात्मकत्वे महदादिभेदानां कार्यतया ततः प्रवृत्तिविरोधः । न खलु यद्यस्मात्सर्वथाऽव्यतिरिक्त तत्तस्य कार्यं कारणं वा युक्त भिन्नलक्षणत्वात्तयोः । अन्यथा तद्व्यवस्था सङ्कीर्येत । तथा च यद्भवद्भिर्मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव, भूतेन्द्रियलक्षणषोडशकगरणस्य कार्यत्वमेव, बुद्धयहङ्कारतन्मात्राणां पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यत्वं कारणत्वं चेति प्रतिज्ञातं तन्न स्यात् । तथा चेदमसङ्गतम्"मूलप्रकृति र विकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ 12 [ सांख्यका० ३ ] इति । जैन - यहां उपर्युक्त सांख्यके मंतव्यका निराकरण किया जाता है, महदादि भेदोंको प्रकृति स्वरूप माननेपर कार्यपनेसे प्रकृति से प्रवृत्ति होनेमें विरोध आता है, क्योंकि जो जिससे सर्वथा भिन्न होता है वह उसका कारण या कार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कार्य और कारण भिन्न भिन्न लक्षण वाले होते हैं, अन्यथा उनको व्यवस्थामें सांकर्य होगा, और इस प्रकार सांकर्य होने पर आपने जो मूल प्रकृतिको कारण ही माना है एवं पंचभूत, एकादश इन्द्रियां रूप सोलह गणको कार्य ही माना है, तथा बुद्धि अहंकार और तन्मात्राओं को पूर्वोत्तरकी अपेक्षा कार्य कारण दोनों रूप माना है वह सिद्ध होगा, तथा यह भी असंगत होगा - मूल प्रकृति अविकृति रहती है, महदादि सात भेद प्रकृतिकी [ व्यक्त के] विकृतियां हैं एवं सोलह विकार हैं, पुरुष तत्व न प्रकृति है और न विकृति है । तथा सभी पदार्थोंका परस्परमें अव्यतिरेक स्वीकार करते हैं तो वे कार्यरूप या कारण रूप ही सिद्ध होंगे, क्योंकि कार्य कारणभाव आपेक्षिक होता है, किन्तु रूपांतर स्वरूप अपेक्षणीय वस्तुका प्रभाव होनेसे सभी पदार्थों के पुरुषके समान प्रकृतिका विकृतिपना होनेका अभाव हो जाता है, अन्यथा पुरुषको भी प्रकृति के विकृतिको संज्ञा प्राप्त होगी । 4 और जो कहा कि व्यक्त हेतुमत् अनित्य आदि धर्म युक्त है और अव्यक्त इससे विपरीत धर्म युक्त है, वह भी बाल प्रलाप है, क्योंकि जो जिससे अभिन्न स्वभावी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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