SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे हमारे प्रत्यक्ष होकर अमूर्त द्रव्य का विशेष गुण होता है उसे क्षणिक सिद्ध किया है और ईश्वर की बुद्धि अमूर्त द्रव्य का विशेष गुण होते हुए भी उसे नित्य मान दिया सो व्यभिचार हुआ। अचेतन द्रव्य चेतन से अधिष्ठित होकर ही कार्य करें ऐसा नियम नहीं है चेतन भी चेतन से अधिष्ठित होकर कार्य करते हैं जैसे पालकी ढोने वाले पुरुष अपने स्वामी के अधिष्ठित रहते हैं यह भी कोई जरूरी नहीं कि कारण सामग्री का पूरा ज्ञान होने के बाद ही कार्य करते हैं, हम लोगों को तो पूरी सामग्री का बोध होना ही संभव नहीं, क्योंकि कारण सामग्री से परमाणु अदृष्टादि तो कभी हमारे ज्ञान के विषय हो ही नहीं सकते । तुमने कहा था कि ईश्वर परम दयालु है, किन्तु वह क्या करे जीवों के अदृष्ट के अनुसार उन्हें सुख दुख अादि सामग्री को पैदा करना पड़ता है सो ऐसे क्यों ? क्या ईश्वर आधीन वह अदृष्ट नहीं है ? उस अदृष्ट को ही पाप रूप क्यों बनावें ? सभी कार्य को एक ही करें सो भी हटाग्रह गलत है, एक कार्य को एक व्यक्ति भी करता है जैसे वस्त्र को जुलाहा बनाता है एक व्यक्ति अनेक कार्यों को भी जैसे कुभकार घड़ा मटकी सकोरादि को बनाता है, अनेक मिलकर एक कार्य करना भी कहा है जैसे चार पुरुष एक पालकी ढोने का कार्य करते हैं । तथा ईश्वर यदि कार्य करने में स्वतः समर्थ है तो एक क्षण में ही सारे कार्य कर डालेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, सहकारी की अपेक्षा लेता है तो वे सहकारी कारण ईश्वर निर्मित हैं अथवा नहीं ? ईश्वर निर्मित हैं तो वही एक साथ कार्य करना रूप आपत्ति खड़ी है और ईश्वर के द्वारा निर्मित नहीं है तो वही कार्यत्व हेतु व्यभिचारी हुआ क्योंकि सहकारी तो कार्य होते हुए भी ईश्वर कृत नहीं है। इस प्रकार ईश्वर अनादि निधन सिद्ध नहीं हुआ, वह तो आवरण कर्म के नाश करने से ही सिद्ध होता है वह कोई एक नहीं, न अनादि है जो कोई भी अन्य जीव अपने पुरुषार्थ से कर्म को नष्ट करेगा वह सर्वज्ञ बनेगा । इस तरह सृष्टि रचना और उसका कर्ता ईश्वर दोनों ही खण्डित हुए । सृष्टि तो अपने आप स्वभाव से अनादि निधन है और ईश्वर ( भगवान सर्वज्ञ ) कर्मों का नाश करके होते हैं यह बात निर्विवाद सिद्ध हुई। ॥ ईश्वरवाद का सारांश समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy