SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वरवादः १३७ aa, एते सहकारिणः किं तदायत्तोत्पत्तयः, अतदायत्तोत्पत्तयो वा ? प्रथमपक्षे किं नैकदेवोत्पद्यन्ते ? तदुत्पादकान्यसहकारिवैकल्याच्च दनवस्था । तथा चास्यापरापरसहकारिजनने एवोपक्षीणशक्तिकत्वान्न प्रकृतकार्ये व्यापारः । बीजांकुरादिवदनादित्वात्तत्प्रवाहस्य नानवस्था दोषायेत्यभ्युपगमे महेश्वरकल्पनावैयर्थ्यम्, स्वसामग्रयधीनोत्पत्तितया पूर्वपूर्व सामग्रीविशेषवशादपरापराखिलकार्योत्पत्तिप्रसिद्ध ेः । अथातदायत्तोत्पत्तयः; तर्हि तैरेव कार्यत्वादिहेतवोऽनैकान्तिकाः इति । एतेन 'महाभूतादि व्यक्त चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुखदुःखनिमित्तं रूपादिमत्त्वात्तुर्यादिवत्' इत्यादीनि वार्तिककारादिभिरुपन्यस्तप्रमाणानि निरस्तानि; यादृशं हि रूपादिमत्त्वमनित्यत्वं च चेतनाधिष्ठितं वास्यादौ प्रसिद्ध तादृशस्य क्षित्यादावसिद्ध ेः । रूपादिमत्त्वमात्रस्य च चेतनाधिष्ठितत्वेन एक काल में ही सबकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती है ? उनके उत्पादक अन्य सहकारी कारण नहीं रहने से एक काल में सबकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसा कहे तो अनवस्था आती है, तथा इस प्रकार ईश्वर अन्य अन्य सहकारी को उत्पन्न करने में ही क्षीण शक्ति वाला होने से प्रकृत कार्य में व्यापार नहीं कर सकता है । योग - बीज और अंकुर के समान अनादि प्रवाह रूप सहकारी कारणों का मिलने की और कार्य होने की परंपरा चलती है अतः कोई दोष नहीं है ? जैन - फिर महेश्वर को मानना ही व्यर्थ है, सभी कार्यों की उत्पत्ति अपनी सामग्री के अधीन है, पूर्व पूर्व सामग्री विशेष से उत्तर उत्तर अखिल कार्य होते रहते हैं ऐसा सिद्ध होता है, यदि दूसरे पक्ष की बात करें कि वे सहकारी कारण ईश्वर के अधीन न होकर कार्योत्पत्ति करते हैं, तब तो उन्हीं सहकारी कारणों के साथ कार्यत्व प्रादि हेतु व्यभिचरित होते हैं । [ अर्थात् सब कार्य ईश्वर ही करता है ऐसा योग का कहना था किन्तु यहां सहकारी की उत्पत्ति होना रूप कार्य बिना ईश्वर के होना स्वीकार किया प्रतः पूर्वोक्त कथन अनैकांतिक होता है ] इस प्रकार ईश्वर को जगतकर्ता सिद्ध करने में दिये गये कार्यत्वादि हेतु का निरसन हुआ इसी प्रकार महाभूतादि व्यक्त प्रधान चेतन से अधिष्ठित होकर प्राणियों के सुख दुःखादि का निमित्त होता है, क्योंकि वह रूपादि मान है, जैसे वादित्र प्रादिक, इत्यादि वार्तिककार द्वारा प्रयुक्त हुए अनुमान भी निराकृत हुए समझना चाहिये, क्योंकि वादित्र, वसूला आदि में जिस प्रकार का रूपादिमत्व एवं अनित्यत्व चैतन्य से ठित है उस प्रकार का पृथ्वी आदि में नहीं है तथा रूपादिमत्व हेतु का चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy