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________________ ईश्वरवादः १३५ पलम्भात् । तथाहि-क्वचिदेक एवैककार्यस्य कर्मोपलभ्यते यथा कुविन्दः पटस्य । क्वचिदेकोप्यनेककार्याणाम् यथा घटघटीशरावोदञ्चनादीनां कुलालः। क्वचिदनेकोप्यनेककार्यारणाम् यथा घटपटमकुटशकटादीनां कुलालादिः । क्वचिदनेकोप्येककार्यस्य यथा शिबिकोद्वहनादिकार्यस्यानेकपुरुषसंघातः । न चानेकस्थपत्यादिनिष्पाद्ये प्रासादादिकार्येऽवश्यतयैकसूत्रधारनियमितानां तेषां तत्र व्यापारः; प्रतिनियताभिप्रायाणामप्येकसूत्रधाराऽनियमितानां तत्करणाविरोधात् । किञ्च, अदृष्टापेक्षस्यास्य कार्यकर्तृत्वे तत्कृतोपकारोऽवश्यंभावी अनुपकारकस्यापेक्षायोगात् । तस्य चातो भेदे सम्बन्धासम्भवः । सम्बन्धकल्पनायां चानवस्था। अभेदे तत्करणे महेश्वर एव कृत इत्यदृष्टकार्यतास्य । नाऽस्यादृष्ट न किञ्चिक्रियते सम्भूय कार्यमेव विधीयते सहकारित्वस्यैककार्यकारि सकोरा, झारी आदि अनेक कार्यों को करता है, तथा कहीं पर अनेकों कर्ता अनेकों कार्यों को करते हैं, जैसे घट, पट, मुकुट, शकट आदि को क्रमशः कुम्हार, जुलाहा, सुनार और बढ़ई करते हैं । कहीं पर अनेक पुरुष मिलकर एक ही कार्य करने में संलग्न हो जाते हैं, जैसे शिविका ढोना आदि एक कार्य में अनेक पुरुष लग जाते हैं। अनेक बढ़ई आदि के द्वारा जिसका निर्माण होना है ऐसे प्रासाद आदि कार्य एक सूत्रधार से नियमित होकर ही होवे सो भी बात नहीं है अपने अपने कार्य में नियमित अभिप्राय वाले बढ़ई आदि पुरुष एक सूत्रधार के नियम में बंधे बिना भी अपना अपना कार्य सम्पन्न कर सकते हैं, कोई विरोध की बात नहीं है । जैन का योग के प्रति प्रश्न है कि ईश्वर अदृष्ट की अपेक्षा लेकर कार्यों को करता है उसमें अदृष्टकृत उपकार जरूर रहता होगा, क्योंकि अनुपकारक की अपेक्षा नहीं हुआ करती है, अब यदि उस उपकार को ईश्वर से भिन्न मानते हैं तो दोनों का सम्बन्ध नहीं बनता है और सम्बन्ध की कल्पना करें तो अनवस्था आती है तथा उस उपकार को ईश्वर से अभिन्न मानते हैं तो उसके करने में ईश्वर को किया ऐसा अर्थ होता है और इस तरह ईश्वर अदृष्ट का कार्य है ऐसा सिद्ध होता है। यौग-अदृष्ट द्वारा ईश्वर का कुछ नहीं किया जाता सिर्फ ये दोनों मिलकर कार्य को करते हैं सहकारी कारण उसीको कहते हैं जो मिलकर एक ही कार्य को करें ? जैन-यह कथन असत् है, सहकारी की अपेक्षा लेकर कार्यों को उत्पन्न करना यह ईश्वर का स्वभाव है, अब यदि वह स्वभाव अदृष्ट आदि सहकारी के मिलने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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