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________________ ईश्वरवादः १३१ अनीश्वरासर्वज्ञत्वादिधर्मकलापोपेत एव कर्त्तात्र सिद्ध्येत्, तथाभूतेनैव घटादौ व्याप्तिप्रसिद्धः, न पुनरीश्वरत्वादिविरुद्धधर्मोपेतः, तस्य तद्व्यापकत्वेन स्वप्नेप्यप्रतिपत्तेः । तथाप्यस्य तं प्रति गमकत्वे महानसप्रदेशे वन्हिव्याप्तो धूमः प्रतिपन्नो गिरिशिखरादौ प्रतीयमानो वन्हिविरुद्धधर्मोपेतोदकं प्रति गमकः स्यात् । धूमाद्यनुमानोच्छेदासम्भवश्च प्राक्प्रबन्धेन प्रतिपादितः । यच्चान्यदुक्तम्-'सर्वज्ञता चाशेषकार्यकारणात्' इत्यादि; तदप्ययुक्तम्; कार्यकारित्वस्य कारणपरिज्ञानाविनाभावासम्भवस्योक्तत्वात् । एकस्याशेषकार्यकारिणो व्यवस्थापकप्रमाणाभावात्, कार्यत्वादेश्च कृतोत्तरत्वात्कथमतः सर्वज्ञतासिद्धिः ? यच्चोक्तम्-'तथा विश्वतश्चक्षुः' इत्यागमादप्यसौ सिद्धः; तदप्युक्तिमात्रम्; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात्-प्रसिद्धप्रामाण्यो ह्यागमस्तत्प्रसाधको नान्यथा तिप्रसङ्गात् ततस्तत्प्रामाण्यप्रसिद्धौ महेश्वर कार्यमात्र के साथ व्याप्ति तो प्रसिद्ध ही है। किन्तु आपके अनुमान में ऐसी बात नहीं है वहां तो बुद्धिमान कारण पूर्वकत्व साध्य है इस साध्य की कार्यत्व हेतु के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती है इस विषय का भी पहले प्रतिपादन कर दिया है। यदि बुद्धिमान कारण के साथ कार्यत्व की व्याप्ति माने तो वह बुद्धिमान कारण, अनीश्वर, असर्वज्ञ आदि स्वभाव वाला ही सिद्ध होगा, क्योंकि घट आदि में वैसा ही दिखायी देता है उसी के साथ कार्यत्व की व्याप्ति है, ईश्वर आदि विरुद्ध स्वभाव वाले के साथ नहीं है । कर्तृत्व की ईश्वर आदि के साथ व्याप्ति होते हुए स्वप्न में भी प्रतीत नहीं होता, व्याप्ति नहीं होते हुए भी इस कार्यत्व हेतु को साध्य का गमक मानो तो, महानस में अग्नि के साथ व्याप्त धुम को देखा था, फिर पर्वत शिखर पर प्रतीति में आया सो अब अग्नि से विरुद्ध धर्मवाला जो जल है उसका गमक बन जाय ? किन्तु बनता तो नहीं । परवादी ने कहा था कि “यदि हमारे कार्यत्व हेतु को गलत सिद्ध करेंगे तो सारे ही धूमादि हेतु वाले अनुमानों का उच्छेद हो जावेगा सो इस विषय में विस्तार से कह दिया है। पहले कहा था कि "ईश्वर में सर्वज्ञता संपूर्ण कार्यों को करने से आती है, यह बात अयुक्त है, हमने सिद्ध कर दिया है कि कार्यकर्ता को कारणों का परिज्ञान होना जरूरी नहीं है, तथा एक ही कर्ता अशेष कार्यों को करता है यह बात भी प्रमाण सिद्ध नहीं है । कार्यत्वादि हेतु सदोष है इसके लिये बहुत कुछ कह दिया है इसलिये उससे सर्वज्ञता कैसे सिद्ध हो सकती है । ईश्वर की सर्वज्ञता को सिद्ध करने के लिये आगम प्रमाण "विश्वतश्चक्षुः" इत्यादि उपस्थित किये थे, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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