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________________ ईश्वरवादः १२६ 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितम्' इत्यत्र प्रयोगेऽचेतन मिति मिविशेषणस्याचेतनत्वादिति हेतोश्चापार्थकत्वम्, व्यवच्छेद्या भावात् । स्वहेतुप्रतिनियमाच्च अचेतनस्यापि देशादिनियमो ज्यायान्, तस्य भवताप्यवश्याभ्युपगमनीयत्वात्, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा सर्वकार्याणामुत्पत्तिः स्यात्, चेतनस्याधिष्ठातुनित्यव्यापित्वाभ्यां सर्वत्र सर्वदा सन्निधानात् । न च कारकशक्तिपरिज्ञानाविनाभावि तत्प्रयोक्त त्वम्, तस्यानेकधोपलम्भात् । किञ्चित्खलूपादानाद्यपरिज्ञानेपि प्रयोक्त त्वं दृष्टम्, यथा स्वापमदमूर्छाद्यवस्थायां शरीरावयवानाम् । किञ्चित्पुनः कतिपयकारकपरिज्ञाने; यथा कुम्भकारादे: करादिव्यापारेण दण्डादिप्रयोक्त त्वम् । न खलु तस्याखिलकारकोपलम्भोस्ति; धर्माधर्मयोस्तद्ध'तुभूतयोरनुपलम्भात् । उपलम्भे वा तयोर्देशादिनियतेषु कार्ये होती तो कह सकते थे कि अचेतन चेतनाधिष्ठान के बिना कार्य नहीं करते, किंतु यहां चेतन को भी अन्य चेतनाधिष्ठान की जरूरत पड़ती है तो दोनों में क्या विशेषता हुई ? कुछ भी नहीं । फिर तो अचेतन पदार्थ भी अपने कार्य के उपादान कारणादि के नियमित होने से प्रतिनियत देश काल आदि में कार्यों को करते हैं उन्हें कोई चेतन कर्ता की जरूरत नहीं है ऐसा प्रापको अवश्य मानना चाहिये, अन्यथा सर्वत्र हमेशा सभी कार्यों की उत्पत्ति होने लगेगी। क्योंकि आपका चेतनाधिष्ठाता ईश्वर नित्य तथा व्यापक है सर्वत्र हमेशा मौजूद है। यह भी बात नहीं है कि कारक शक्ति का ज्ञान होने पर ही उनको प्रयुक्त किया जाता है कार्य के प्रयोक्ता अनेक प्रकार के होते हैं, कोई प्रयोक्ता तो उपादान आदि कारणों का ज्ञान नहीं होते हुए भी प्रेरक होता है, जैसे निद्रा, मद, मूर्छा आदि अवस्था में शरीर के अवयवों का हिलना, करवट लेना प्रादि होता है । कोई प्रयोक्ता ऐसे होते हैं कि उनको कतिपय कारकों का परिज्ञान रहता है, जैसे कुभकार आदि प्रयोक्ता के हाथ की क्रिया से दण्डे को चलाना, चाक पर मिट्टी का पिण्ड रखना इत्यादि कार्य कतिपय कारणों के परिज्ञान से होता है । उस कुभकार को अखिल कारकों का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि उसको घट के धर्म अधर्म रूप कारणों का ज्ञान नहीं है, यदि होता तो प्रतिनियत देश, काल आदि में होने वाले कार्यों में इच्छा का व्याघात नहीं होता, अर्थात् इस व्यक्ति के अदृष्ट से यह कार्य निष्पन्न अवश्य होगा, इसका नहीं होगा क्योंकि इसका भाग्य नहीं है इत्यादि ज्ञान कुभकार को नहीं होता। तथा यदि कार्य प्रयोक्ता कुंभकार आदि को कारकों का पूरा पूरा ज्ञान है, ऐसा माने तो संसार के सभी जीव अतीन्द्रिय ज्ञानी हो जायेंगे । ऐसा कोई बुद्धिमान नहीं है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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