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________________ ईश्वरवादः किञ्च, व्याप्त्या तेनास्यास्तत्र वर्त्तनम्, अव्याप्त्या वा? न तावद्वयाप्त्या; आत्मविशेषगुणत्वादस्मदादिबुद्ध्यादिवत् । परममहापरिमाणेन व्यभिचारः; इत्ययुक्तम्; तत्र विशेषगुणत्वाभावात् । नन्वेवमस्मदादिबुद्ध्यादौ सकलार्थग्राहित्वाभावो दृष्टः सोपि तत्र स्यादिति चेत्, अस्तु नाम, दृष्टान्ते व्याप्तिदर्शनमात्रात्सर्वत्र साध्यसिद्धर्भवताभ्युपगमात् । कथमन्यथा प्रकृतसिद्धिः ? यथा चास्मदादिबुद्धि वलक्षण्यं तद्बुद्ध रदृष्ट परिकल्प्यते तथा घटादौ कर्मकत्त करणनिर्वहँकार्यत्वं दृष्ट वने वनस्पत्यादिषु चेतनकत्त रहितमपि स्यादित्येतेयं भिचारो हेतोः । अथाऽव्याप्त्या; तहि देशान्तरोत्पत्तिमत्कार्येषु कथं तस्या व्यापारः असन्निधानात् ? तथापि व्यापारेऽदृष्टस्याप्यग्न्यादिदेशेऽसन्निहितस्योर्ध्वज्वलनादिहेतुता के गुण कहलाने लगेंगे क्योंकि सम्बन्ध मात्र से रहना रूप तदाधेयत्व घटादि में भी पाया जाता है। ___किंच, बुद्धिमान में बुद्धि रहती है वह समस्त रूप से व्यापक होकर रहती है अथवा असमस्त रूप से ? समस्त रूप से रहना शक्य नहीं, क्योंकि वह आत्मा का विशेष गुण है, जैसे-हमारे बुद्धि आदि गुण होते हैं। जो विशेष गुण होता है वह अव्यापक होता है ऐसा माने तो परम महापरिणाम के साथ व्यभिचार आता है ऐसो आशंका करना भी अयुक्त है, क्योंकि परम महापरिणाम में विशेष गुणत्व का अभाव है। यौग-हमारी बुद्धि में समस्त रूप से रहना रूप विशेषता नहीं है अतः अन्य के (ईश्वर की) बुद्धि में भी वह विशेषता नहीं है, इस तरह घटित करेंगे तो हमारी बुद्धि में सकलार्थ ग्राहित्व नहीं है अतः ईश्वर में भी नहीं है ऐसा विपरीत अर्थ सिद्ध होवेगा ? जैन-यह आपत्ति आपको है क्योंकि आपने दृष्टांत में व्याप्ति को देखने मात्र से सर्वत्र साध्य की सिद्धि हो जाया करती है ऐसा माना है अन्यथा प्रकृत बुद्धिमत्कारणत्व की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है ? यदि आप हमारे जैसे सामान्य पुरुषों की बुद्धि से ईश्वर की बुद्धि में विलक्षणता है ऐसा बिना देखे स्वीकार करते हैं तो घट आदि में कर्ता, कर्म, करण द्वारा कार्यत्व देखा जाता है किन्तु वन में वनस्पति आदि में चेतन कर्ता से रहित कार्यत्व होता है ऐसा स्वीकार करना होगा । इस प्रकार कार्यत्व हेतु इनके द्वारा व्यभिचरित होता है। बुद्धिमान में बुद्धि असमस्तपने से रहती है, ऐसा दूसरा पक्ष कहो तो देशदेशांतरों में उत्पन्न शील कार्यों में उस अव्यापक बुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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