SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वरवादः ११३ किञ्च, कथञ्चित्कार्यत्वं क्षित्यादेः, सर्वथा वा ? सर्वथा चेत्पुनरप्य सिद्धत्वं द्रव्यतोऽशेषार्थानामकार्यत्वात् । कथञ्चित् चेद्विरुद्धत्वम्; सर्वथा बुद्धिमन्निमित्तत्वात्साध्याद्विपरीतस्य कथञ्चिबुद्धिमन्निमित्तत्वस्य साधनात् । अनैकान्तिकं च आत्मादिभिः; तेषां बुद्धिमन्निमित्तत्वाभावेपि तत्सम्भवात् । कथञ्चिदप्यकार्यत्वे चैतेषां कार्यकारित्वस्याभावस्तस्याऽकर्तृ रूपत्यागेन कर्तृ रूपोपादानाविनाभावित्वात् । तत्त्यागोपादानयोश्चैकरूपे वस्तुन्यसम्भवात्सिद्ध कथञ्चित् कार्यत्वं तेषाम् । कत्तु त्वाकत्त त्वरूपयोरात्मादिभ्योऽर्थान्तरत्वान्न तद्विनाशोत्पादाभ्यां तेषामपि तथाभावो यतः कार्यत्वं स्यात्; इत्यपि श्रद्धामात्रम्; तयोस्ततोऽर्थान्तरत्वे सम्बन्धासिद्धिप्रसङ्गात् । समवायादेश्च कृतोत्तरत्वादित्यलमतिप्रसङ्गेन। हेत्वाभास का प्रसंग होगा क्योंकि द्रव्य रूप से सभी पदार्थों को अकार्य रूप (कथंचित् कार्यरूप) माना है ऐसा कहो तो विरुद्ध हेत्वाभास होगा, क्योंकि पृथ्वी आदि सर्वथा बुद्धिमान निमित्तक है ऐसा आपका साध्य था किंतु हेतु उससे विपरीत कथंचित् बुद्धिमान निमित्तक को सिद्ध कर रहा है। यह कार्यत्व हेतु अनैकांतिक दोष युक्त भी है, आत्मा आदि पदार्थ बुद्धिमान निमित्तक नहीं होकर भी कार्य हैं। यदि आत्मादि को कथंचित् रूप से भी कार्य स्वरूप नहीं मानेंगे तो वे कार्यकारी नहीं रहेंगे । कार्यकारी पदार्थ तो वे ही होते हैं जो अपने अकर्तृत्व का परित्याग कर कर्तृत्व को धारण करते हैं सर्वथा एक रूप वस्तु में अकर्तृत्व त्याग और कर्तृत्व ग्रहण रूप परिणमन असंभव होने से आत्मा आदि पदार्थों में कथंचित् कार्यत्व है ऐसा सिद्ध होता है । शंका-प्रात्मा आदि पदार्थों में जो कर्तृत्व और अकर्तृत्व रूप होता है वह उनसे पृथक है अतः उनके उत्पाद और नाश से आत्मादि का भी उत्पाद अादि होने का प्रसंग नहीं आता, इसलिये आत्मादि में कार्यत्व सिद्ध नहीं होता है। जैन-यह कथन श्रद्धामात्र है, कर्तृत्व आदि से प्रात्मादि को पथक मानेंगे तो उनका सम्बन्ध नहीं हो सकेगा समवाय सम्बन्ध आदि के विषय में पहले कह चुके हैं, अब अतिप्रसंग से बस हो । दूसरी बात यह है कि "बुद्धिमान कारण है" इस शब्द में मतुप् प्रत्यय अर्थ वाला साध्य का विशेषण अनुपपन्न है । क्योंकि बुद्धिमान से बुद्धि भिन्न है कि अभिन्न है ? दोनों पक्ष में से पहली बात माने कि बुद्धि बुद्धिमान से सर्वथा भिन्न है तो "बुद्धिमान की बुद्धि है" ऐसा संबंध सिद्ध नहीं होता है । तथा बुद्धि बुद्धिमान का गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy