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प्रमेयकमलमार्तण्डे
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ २॥"
[ भगवद्गी० १५॥१६-१७ ] इति व्यासवचनसद्भावाच्च ।
न च स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम्; प्रमाजनकत्वस्य सद्भावात् । प्रमाजनकत्वेन हि प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिजनकत्वेन, तच्चेहास्त्येव । प्रवृत्तिनिवृत्ती तु पुरुषस्य सुखदुःखसाधनत्वाध्यवसाये समर्थस्याथित्वाद्भवतः । विधेरङ्गत्वादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थत्वात्; इत्यसत्; स्वार्थ
सकता है, जैसे कुभकार घट के कारण कलाप को जानकर घट को बनाता है । तथा विश्वतश्चक्षु इत्यादि आगम वाक्य से भी ईश्वर की सर्वज्ञता सिद्ध होती है । संसार में दो पुरुष हैं एक (क्षर) अनित्य है एक अक्षर (नित्य) है, क्षर तो सभी संसारी जीव हैं और अक्षर मात्र एक (ईश्वर है) ॥१॥ जो अक्षर है वह उत्तम पुरुष है, उसी को परमात्मा कहते हैं, ईश्वर तथा अव्यय भी कहते हैं, जो कि तीनों लोकों में प्रवेश कर उनको धारण करता है ।। २ ।। इस प्रकार के ईश्वर के विषय में व्यास ऋषि के वचन हैं।
स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले वेद वाक्य भी इस विषय में अप्रमाण नहीं हैं, क्योंकि वे वाक्यप्रमा को (यथार्थ अनुभव को) उत्पन्न करते हैं । जो प्रमा को उत्पन्न करता है वह प्रमाण है, उसी के निमित्त से प्रामाण्य आता है न कि प्रवृत्ति को उत्पन्न करने से । ऐसी प्रमाणता तो वेद वाक्य में मौजूद ही है, प्रवृत्ति और निवृत्ति तो सुख दुःख के साधनों का निश्चय होने के बाद तदर्थ इच्छुक समर्थ पुरुष की होती है ।
शंका-वेद वाक्यों में विधि का अंग होने से प्रमाणता है न कि स्वरूप प्रतिपादक होने से ?
समाधान-ऐसा नहीं है, स्वार्थ प्रतिपादक होने से वेद वाक्य विधि का अंग बने हैं इसी को बताते हैं-स्तुति के वाक्य स्वार्थ प्रतिपादक होने से प्रवर्तक हैं और निंदा के वाक्य निवर्तक हैं, अन्यथा उन वाक्यों के अर्थ के परिज्ञान के अभाव में उपादेय और निषिद्ध कार्यों में समान रूप से ही प्रवृत्ति या निवृत्ति हो जायगी। दूसरी
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