________________
८०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
यच्चानुमानाविर्भावितत्वपक्षे सम्बन्धासिद्ध रित्युक्तम्; तदसमीचनम्; प्रमाणान्तरात्सम्बन्धसिद्ध रभ्युपगमात् । न खलु कश्चित्तस्यागोचरोस्ति सर्वत्रेन्द्रियातीन्द्रियविषये प्रवृत्त रन्यथा तत्रानुमानाप्रवृत्तिप्रसङ्गात्, तस्य तन्निबन्धनत्वात्।।
___ यच्चानुमानागमज्ञानस्य चास्पष्टत्वादित्य भिहितम्; तदप्यसमीक्षिताभिधानम्; न हि सर्वथा कारणसदृशमेव कार्य विलक्षणस्याप्यंकुरादे/जादेरुत्पत्तिदर्शनात् । सर्वत्र हि सामग्रोभेदात्कार्यभेदः। अत्राप्यागमादिज्ञानेनाभ्यासप्रतिबन्धकापायादिसामग्रीसहायेनासादिताशेषविशेषवैशद्य विज्ञानमाविर्भाव्यते।
भावनाबलाकै शये कामाधु पप्लुतज्ञानवत्तस्याप्युपप्लुतत्वप्रसङ्गः; इत्यप्यसाम्प्रतम्; यतो
नहीं होता, हमने तो ऐसा माना है कि पूर्व सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत आगम है उसके अभ्यासादि से जो पुरुष तपश्चर्या आदि के द्वारा कर्मों का नाश करता है उसके सकलार्थग्राही ज्ञान होता है, पूर्ववर्ती सर्वज्ञ के भी अन्य पूर्ववर्ती सर्वज्ञागम से पूर्ण ज्ञान उत्पन्न हुआ है, इस तरह मानने में अनवस्था दोष की आशंका भी नहीं करना क्योंकि आगम और सर्वज्ञ की परंपरा बीज और अंकुर के समान अनादि कालीन है, अनादि व्यवस्था में अनवस्था का कोई स्थान नहीं है।
सर्वज्ञ के ज्ञान को अनुमान जनित माने तो संबंध की असिद्धि है 'इत्यादि दोष बताये वे भी असत हैं, हम जैन अविनाभाव संबंध की सिद्धि तर्क प्रमाण से होना स्वीकार करते हैं, तर्क प्रमाण के कोई अगोचर नहीं है, उसकी तो सर्वत्र अतीन्द्रिय विषयों में भी प्रवृत्ति होती है, यदि नहीं मानें तो अनुमान की भी उनमें प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। क्योंकि अनुमान की प्रतिष्ठा तो तर्क प्रमाण में निष्ठ है । अागम तथा अनुमान अस्पष्ट ज्ञान है इत्यादि कथन किया है वह बिना बिचारे ही किया है अर्थात् आगमादि अस्पष्ट ज्ञान से सर्वज्ञ का स्पष्ट ज्ञान कैसे उत्पन्न होगा ? ऐसा जो कथन है वह ठीक नहीं, क्योंकि कारण के समान ही कार्य होता हो सो बात नहीं है, कारण से विलक्षण भी कार्य उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, बीज से विलक्षण ही अंकुर उत्पन्न होता है बात यह है कि सर्वत्र सामग्री के भिन्न होने से कार्य में भिन्नता दिखाई देती है। यहां सर्वज्ञ ज्ञान के विषय में आगमादि का ज्ञान, अभ्यास, प्रतिबंधक कर्मों का अपाय इत्यादि सामग्री है, इनकी सहायता से सकलार्थ विषयों का विशद ज्ञान प्रगट होता है । भावना के बल से सर्वज्ञ के ज्ञान में विशदता माने तो कामी जन के समान यह ज्ञान उपयुक्त काल्पनिक बन बैटेगा । इत्यादि कथन भी असत है, भावना ज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org