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________________ ७४ प्रमेयकमलमार्तण्डे त्वेप्यसिद्धतैव, प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वेनात्यन्तविलक्षणमहानसाचलप्रदेशव्यक्तिद्वयाश्रितसामान्यस्यैवासम्भवात् । अथ कण्ठाक्षिविक्षेपादिलक्षणधर्मकलापसाधान्न महानसाचलप्रदेशाश्रितधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्यं येनोभयगतसामान्यासिद्धरसिद्धता स्यात्; तर्हि स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकत्वादिधर्मकलापसाधर्म्यस्यातीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाणव्यक्तिद्वयेऽत्यन्तवलक्षण्यनिवर्त्त कस्य सम्भवादुभयसाधारणसामान्य सिद्ध कथं प्रमेयत्वसामान्यस्यासिद्धि: ? यच्चेदमुक्तम्-प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां चास्याशेषार्थविषयत्वं बाध्यत इत्यादि; तन्मनोरथमात्रम्; साध्यसाधनयोाप्यव्यापकभावसिद्धौ हि व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र प्रदर्श्यते बनावे तो दृष्टान्त में उसका अभाव होने से अनन्वयी नामा सदोष हेतु कहलायेगा। दृष्टान्त धर्मी के धर्म को हेतु बनावे तो साध्य धर्मी में उसका अभाव होने से वह प्रसिद्ध हेत्वाभास हो जायगा। उभयगत सामान्य धर्म को हेतु बनावे तो भी प्रसिद्ध नामा हेत्वाभास दोष आता है, कैसे सो बताते हैं - महानस और पर्वत के प्रदेश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दो तरह के हैं अर्थात् महानस प्रत्यक्ष है और पर्वतगत अग्निप्रदेश अप्रत्यक्ष है अतः पृथक है, इन दोनों में रहने वाला सामान्य सम्भव नहीं है । __ शंका-मानस का धूम हो चाहे पर्वत का दोनों कंठ तथा नेत्र में विक्षेप करना आदि धर्म समूह से युक्त होते हैं अतः इनमें अत्यन्त वैलक्षण्य नहीं है इसलिये धूम हेतु उभयगत सामान्य से रहित होने से प्रसिद्ध हेत्वाभास है ऐसा कहना ठीक नहीं ? ___ समाधान- तो फिर अतीन्द्रियविषयक प्रमाण हो चाहे इन्द्रियविषयक प्रमाण हो दोनों में स्व और अपूर्वार्थ का निश्चय करना आदिरूप समान धर्मसमूह है, अतः अत्यन्त वैलक्षण्य तो इनमें भी नहीं है, उभयगत सामान्य की दोनों ज्ञानोंमें सिद्धि है, इसलिये उनमें प्रमेयत्व सामान्य की किसप्रकार असिद्धि हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। ___सर्वज्ञ के ज्ञानको अशेषपदार्थ को विषय करने वाला मानना प्रसंग और विपर्यय से बाधित होता है इत्यादि मीमांसक का कथन मनोरथ मात्र है पहले प्रसंग साधन और विपर्यय किसे कहते हैं इस बात को देखे, साध्य और साधन में व्याप्यव्यापकभाव सिद्ध होने पर जहां व्याप्य स्वीकार किया वहां व्यापक अवश्य स्वीकार करना होगा ऐसा दिखाना "प्रसंग साधन" अनुमान कहलाता है। तथा व्यापक के निवृत्त होने पर [हट जाने पर] व्याप्य भी निवृत्त होता है ऐसा दिखाना "विपर्यय" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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