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________________ सर्वज्ञत्ववादः E4 कथं चासौ तद्ग्राह्याखिलार्थाज्ञाने तत्कालेप्यसर्वज्ञैतुि शक्यते ? तदुक्तम् - "सर्वज्ञोयमिति ह्य तत्तत्कालेपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ।। १ ।। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्बहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञ न बुद्धयते ।। २।। सर्वज्ञो नावबुद्धश्च येनैव स्यान्न तं प्रति । तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् ॥ ३ ॥" [मो० श्लो० चोदनासू० श्लो० १३४-३६ ) इति । के ज्ञान को नहीं जानते हैं और न उसके ज्ञेयों को ही जानते हैं ।।१।। सर्वज्ञ को तो सर्वज्ञ ही जान सकेगा ऐसा माने तो बहुत सारे सर्वज्ञ होवेंगे, क्योंकि असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को जान नहीं सकता ॥२॥ जिस किसी ने भी सर्वज्ञ को नहीं जाना हो वह उस सर्वज्ञ के वाक्य को प्रमाण नहीं मान सकता, क्योंकि आगम का हेतु जो सर्वज्ञ है उसका ज्ञान नहीं हुआ है, जैसे रथ्या पुरुष के वाक्य को प्रमाण नहीं मानते हैं। इस प्रकार सर्वज्ञ को सिद्धि नहीं होती है उसके विशिष्ट ज्ञान की सिद्धि भी नहीं होतो, अतः हम मोमांसक सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं। जैन-अब यहां मीमांसकका सर्वज्ञाभाव को सिद्ध करने वाला मंतव्य खण्डित किया जाता है-पूर्व पक्ष में कहा कि सत्ता ग्राहक पांचों प्रमाणों द्वारा सर्वज्ञ को नहीं जाना जाता है, सो यह बात असिद्ध है, सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले अनुमानादि प्रमाण मौजूद हैं । उसी अनुमान प्रमाण प्रस्तुत करते हैं - कोई अात्मा सकल पदार्थों को साक्षात जानने वाला है क्योंकि उन पदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव वाला होकर उसके प्रतिबंधक कर्मों का अभाव हो चुका है, जो जिसके ग्रहण करने का स्वभाव वाला होकर प्रक्षीणावरण बन जाता है वह उसका साक्षात जानने वाला होता ही है, जैसे तिमिर आदि रोग का नाश होने पर नेत्र ज्ञान रूप को साक्षात जानता है, किसी आत्मा में सकल पदार्थों का ग्रहण करने का स्वभाव होकर साथ ही आवरण कर्म का नाश भी हो गया है । प्रात्मा में सकल पदार्थों का साक्षात करने का स्वभाव प्रसिद्ध भी नहीं है। चोदना अर्थात् वेद के बल से अखिल पदार्थों के ज्ञानोत्पत्ति की अन्यथानुपपत्ति से ही वह स्वभाव सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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