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________________ ६२ प्रमेयकमलमातंगडे गम्यते तदा तद्धर्मादिग्राहकं न स्याद्विद्यमानोपलम्भनत्वात् । विद्यमानोपलम्भनं तत् सत्सम्प्रयोगजत्वात् । सत्सम्प्रयोगजं तत्, प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वादस्मदादिप्रत्यक्षवत् । तद्धर्मादिग्राहकं चेत् न विद्यमानोपलम्भनं धर्मादेरविद्यमानत्वात् । तत्त्वे चासत्सम्प्रयोगजत्वे चाऽप्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वम् । धर्मज्ञत्वनिषेधे चान्याशेषार्थप्रत्यक्षत्वेपि न प्रेरणाप्रामाण्यप्रतिबन्धो धर्मे तस्या एव प्रामाण्यात् । तदुक्तम् - "सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यत्वं लप्स्यते पुण्यपापयोः ।। १।" धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोत्रोपयुज्यते। सर्वमन्य द्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते । २ ।।" तो केवल विद्यमान की उपलब्धि कराता है, प्रत्यक्ष प्रमाण संप्रयोग से उत्पन्न होता है अतः विद्यमान मात्र को ग्रहण करता है, इस ज्ञान को संप्रयोगज इसलिये मानते हैं कि वह प्रत्यक्ष नाम से कहा जाता है, जैसे हमारा प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष शब्द से वाच्य होने से संप्रयोगज है । यदि सर्वज्ञ के ज्ञान को धर्म अधर्मादिका ग्राहक मानते हैं तो वह विद्यमान (वर्तमान) पदार्थ का ग्राहक नहीं बनेगा, क्योंकि धर्मादिक तो अविद्यमान है, इस तरह विद्यमान ग्राहक तथा संप्रयोजक न होवे तो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कह ही नहीं सकते, वह तो अप्रत्यक्ष या परोक्ष शब्द से कहा जायगा। कोई सर्वज्ञवादी इस प्रकार मानता हो कि सर्वज्ञ का ज्ञान धर्म अधर्म को (पुण्य पाप को) छोड़कर अन्य अशेष पदार्थों को साक्षात् जानने वाला है ? सो इस तरह की मान्यता में वेद की प्रमाणता में कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता है, धर्म आदि विषय में तो वेद वाक्य ही प्रमाणता की कोटि में आते हैं, इसी प्रकरण का निम्नलिखित श्लोकार्थ से खुलासा होता है । संसार भर में जितने भी प्रमाता हैं उन प्रमाता संबंधी प्रत्यक्षादिप्रमाण धर्म आदि विषय में प्रवृत्त नहीं होते हैं अतः इन धर्म-अधर्म को जानने का अधिकार आगम प्रमाण को है आगम से ही पुण्य पाप का ज्ञान होता है अन्य प्रमाण से नहीं ।।१।। हम तो पुरुष मात्र में पुण्य-पाप को जानने वाले का ही निषेध करते हैं, उनको छोड़कर शेष सर्वको जानने वाला कोई पुरुष होवे तो हम मना नहीं करते । मतलब किसी भी जीवको धर्म अधर्म को छोड़कर अन्य शेष पदार्थों का ज्ञान होना शक्य है धर्म अधर्म को छोड़ अन्य सबको जानकर ही सर्वज्ञ बन जायगा ऐसा माने तो उसका निषेध नहीं है ।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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