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________________ प्रमेयकमलमात्तण्डे मासादयति ; नान्यथातिप्रसङ्गात् । न चोपमानभूतः कश्चित्सर्वज्ञत्वेनाध्यक्षतः सिद्धो येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमुपमानात्साध्येत । नाप्यर्थापत्तितस्तत्सिदिः; सर्वज्ञसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषट्कविज्ञातार्थस्य कस्यचिदभावात् । धर्माद्य पदेशस्य बहुजनपरिगृहीतस्यान्यथापि भावात् । तथा चोक्तम्"सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः । [ मी० श्लो. चोदनासू० श्लो० ११७ ] दृष्टो न चैकदेशोस्ति लिङ्गवा योनुमापयेत् ।।१॥ [ ] न चागमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः । न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते ॥२॥ अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती। सर्वज्ञ के सद्भाव के विना जो अनुपपद्यमान हो ऐसा छह प्रमाणों से ज्ञात कोई पदार्थ ही नहीं है, अतः अर्थापत्ति से सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता है । भावार्थ-अर्थापत्ति प्रमाण के छह भेद हैं, प्रत्यक्ष पूर्विका अर्थापत्ति, १ अनुमान पूर्विका अर्थापत्ति २ उपमा पूर्विका अर्थापत्ति ३ अागम पूर्विका अर्थापत्ति ४ अर्थापत्ति पूर्विका अर्थापत्ति ५ और प्रभाव पूर्विका अर्थापत्ति६ इनमें नामों के अनुसार लक्षण पाये जाते हैं, इन सबका विशद वर्णन प्रथम भाग में हो चुका है। अर्थापत्ति प्रत्यक्षादि छहों प्रमाणों के द्वारा ज्ञात विषयों में प्रवृत्त होती है, अतः यहां "प्रमाणषटकविज्ञातार्थस्य" पेसा पाठ है । सर्वज्ञ धर्मादि का उपदेश देता है अतः उसको मानते हैं ऐसा कहना भी बनता नहीं, धर्मोपदेश तो बहुत से व्यक्ति देते हैं। सर्वज्ञ के बिना भी वह हो सकता है, कोई कहे कि धर्म अधर्मरूप अदृष्ट का (पुण्य-पाप) उपदेश सर्वज्ञ देते हैं अतः उनको मानते हैं सो भी ठीक नहीं, इनका उपदेश अन्य भी देते हैं। सर्वज्ञाभाव को अन्यत्र भी कहा है-वर्तमान में हम लोगों को सर्वज्ञ दिखाई नहीं देता है, अनुमान से अतीतादिकाल में सिद्ध करना चाहे तो उसका हेतु रूप एक देश दिखाई नहीं देता, जो उस सर्वज्ञ को सिद्ध कर देता ॥१॥ नित्य पागम सर्वज्ञ को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि यह पागम होम अनुष्ठान आदि को कहता है, मंत्रवाद आदि को कहता है, उससे सर्वज्ञ की सत्ता निश्चित नहीं हो सकती है ॥२॥ नित्य आगम वेद है उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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