SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 713
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६२ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रमाण संख्या-प्रमाण के तीन भेद माने हैं प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम । वैशेषिक सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं प्रमाण में प्रामाण्य पर से आता है । मुक्ति का मार्ग-निवृत्ति लक्षण धर्म विशेष से साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा द्रव्यादि छह पदार्थों का तत्व ज्ञान होता है और तत्त्व ज्ञान से मोक्ष होता है । मुक्ति-बुद्धि आदि के पूर्वोक्त नौ गुणों का विच्छेद होना मुक्ति है । ऐसा नैयायिक के समान मुक्ति का स्वरूप इस दर्शन में भी कहा गया है नयायिक और वैशेषिक दर्शन में अधिक सादृश्य पाया जाता है, इन दर्शनों को यदि साथ ही कहना हो तो यौग नाम से कथन करते हैं । सांख्य दर्शन सांख्य २५ तत्त्व मानते हैं । इन २५ में मूल दो ही वस्तुएं हैं-एक प्रकृति और दूसरा पुरुष । प्रकृति के २४ भेद हैं । मूल में प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त के भेद से दो भागों में विभक्त है । व्यक्त के हो २४ भेद होते हैं । अर्थात् व्यक्त प्रकृति से महान ( बुद्धि ) उत्पन्न होता है महान से अहंकार, अहंकार से सोलह गण होते हैं वे इस प्रकार हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियां हैं । वाग्, पाणि, पाद पायु, और उपस्थ ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं · रूप, गन्ध, स्पर्श, रस, शब्द ये पाँच तन्मात्रायें कहलाती हैं । इस प्रकार ये पन्द्रह हुए और सोलहवां मन है । जो पाँच रूप आदि तन्मात्रायें हैं उनसे पंचभूत पैदा होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । इस प्रकार प्रकृति या अपर नाम प्रधान के २४ भेद हैं, पच्चीसवाँ भेद पुरुष है, इसी को जीव प्रात्मा आदि नामों से पुकारते हैं । यह पुरुष प्रकृति से सर्वथा विपरीत लक्षण वाला है अर्थात् प्रकृति में जड़त्व, अविवेक, त्रिगुणत्व, विकार आदि धर्म रहते हैं और इनसे विपरीत पुरुष में चेतनत्व, विवेक, त्रिगुणातीतत्व, अविकारीत्व प्रादि धर्म रहते हैं । यह पुरुष कूटस्थ नित्य है, इसमें भोक्तृत्व गुण तो पाया जाता है किन्तु कर्तृत्व गुण नहीं पाया जाता। कारण कार्य सिद्धान्त-यौग दर्शन से सांख्य का दर्शन इस विषय में नितान्त भिन्न है, वे असत् कार्य वादी हैं, ये सत्कार्यवादी हैं । कारण में कार्य मौजूद ही रहता है, कारणद्वारा मात्र वह प्रकट किया जाता है ऐसा इनका कहना है । किसी भी वस्तु का नाश या उत्पत्ति नहीं होती किन्तु तिरोभाव प्राविर्भाव ( प्रकट होना और छिप जाना) मात्र हुआ करता है। सत्कार्य वाद को सिद्ध करने के लिए सांख्य पाँच हेतु देते हैं प्रथम हेतु-यदि कार्य उत्पत्ति से पहले कारण में नहीं रहता तो असत् ऐसे आकाश कमल को भी उत्पत्ति होनी चाहिये । द्वितीय हेतु-कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादान को ग्रहण किया जाता है जैसे तेल की उत्पत्ति के लिए तिलों का ही ग्रहण होता है, बालुका का नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy