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प्रमेयकमलमार्तण्डे अनेक कारकों में से किसी एक को विशेष नहीं मान सकते, क्योंकि सभी के होने पर तो कार्य होता है, और उनमें से एक के भी नहीं होने पर कार्य नहीं होता है, यही बात कही है कि "अनेक कारकसन्निधाने कार्य घटमानमन्यतरव्यपगमे च विघटमानं कस्मै अतिशयं प्रयच्छेत् । न चातिशयः कार्यजन्मनि कस्यचिदवधार्यते सर्वेषां तत्र व्याप्रियमाणत्वात्" [न्याय मंजरी पृ० १३] अर्थात्-अनेक कारकों के निकट होने पर तो कार्य होता है और उनमें से एक के नहीं होने पर कार्य नहीं हो पाता है, अतः किसी एक को अतिशय युक्त नहीं कह सकते । यहां तो सभी कारकों का उपयोग होता है और इसीलिए तो इस सामग्री का नाम कारक साकल्य है, इस कारक साकल्य या सामग्री के अंदर कोई कारक बोधरूप है और कोई अबोधस्वरूप है, अत: “बोधाबोधस्वभावा तस्य स्वरूपम्" ऐसा कहा है, अर्थात् प्रकाश, इन्द्रियादि अबोध स्वभाववाले कारक हैं और ज्ञान बोधस्वभाववाला है । बस ! इन्हीं का समूह कारकसाकल्य है, यही प्रमा का साधकतमकरण है, अतः यही प्रमाण है।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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