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________________ ६३२ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे हुई वस्तु को प्रांख नहीं जान सकेगी, क्योंकि किरणों का प्रवेश वहां हो नहीं सकेगा । यदि कहा जाय कि स्फटिक का भेदन कर वे अंदर घुस जाती हैं तो फिर उन्हें गंदे पानी के भीतर घुसकर वहां की वस्तु को भी देख लेना चाहिये ? यदि कहा जाय कि वे पानी के संपर्क से समाप्त हो जाती हैं तो फिर स्वच्छ पानी में स्थित पदार्थ वे कैसे ग्रहण करती हैं ? यदि कहा जाय कि उनमें ऐसी ही योग्यता है तो फिर ऐसा ही क्यों न मान लिया जाये कि प्रांखें बिना छुए ही रूप की प्रकाशक होती हैं । अांखें यदि स्पर्श करके रूप को जानती हैं तो खुद प्रांख में स्थित काचकामलादि रोग को तथा अंजन आदि को सबसे पहिले उन्हें जानना चाहिये ? फिर क्यों उन्हें देखने के लिये दर्पणादि लिया जाता है और क्यों वैद्य आदि द्वारा उनका निरीक्षरण कराया जाता है ? अतः इन सब प्रापत्तियों से यदि बचना चाहते हैं तो प्रांख को तेजोरूप नहीं मानना चाहिये और न उसे प्राप्यकारी ही स्वीकार करना चाहिये । अन्यथा श्राप में " नैयायिक" इस नामकी सार्थकता नहीं हो सकती है । अत: जैन मान्यता के अनुसार चक्षु अप्राप्यकारी ही सिद्ध होती है | देखिये - चक्षु प्राप्त होकर ही पदार्थ को प्रकाशित करती है, क्योंकि वह अत्यन्त निकटवर्ती वस्तुको ग्रहण नहीं करती, "चक्षुः प्रप्राप्तार्थप्रकाशकं प्रत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात् " इस अनुमान में जो आपने हेतु में साध्यसम होने का दोष प्रकट किया है वह गलत है क्योंकि हमने इसे प्रसंग साधनरूप से स्वीकार किया है । प्रसंगसाधन का लक्षण "परेष्टयाऽनिष्टा पादन प्रसङ्ग साधनम् " ऐसा कहा है । कर्ण आदि इन्द्रियां प्राप्त होकर ही निकटवर्ती पदार्थ को जानती हैं, अतः प्राप्य का और अत्यासन्नार्थ प्रकाशकत्वका इन दोनों का व्याप्य व्यापक भाव है । अर्थात् प्राप्यकारी व्याप्य है और अत्यासन्नार्थ प्रकाशकत्व व्यापक है । अब यहां नेत्र में आप व्याप्य जो प्राप्यकारित्व है उसे तो मानते हो और व्यापक जो प्रत्यासन्नार्थ प्रकाशकत्व है उसे स्वीकार नहीं करते हो सो यह कैसे ? व्याप्य तो व्यापक के साथ रहता है । अतः हमारा ऐसा कहना है कि जब चक्षु प्रत्यासन्नार्थ प्रकाशक नहीं है तब उसमें प्राप्यकारित्व भी नहीं है । इस तरह चक्षु बिना छुए ही पदार्थ को प्रकाशित करतो है - जानती है यह बात सिद्ध हुई । चक्षुसन्निकर्षवाद के खंडन का सारांश समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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