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________________ चक्षुः सन्निकर्षवादः तेषां महत्त्वादिधर्मस्य श्रद्धामात्रगम्यत्वात् । ततो रश्मिरूपचक्षुषोऽप्रसिद्ध गलकस्य च प्राप्यकारित्वे प्रत्यक्षबाधितत्वात्कस्य प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं साध्येत ? यदि च स्पर्शनादौ प्राप्यकारित्वोपलम्भाच्चक्षुषि तत्साध्येत; तहि हस्तादीनां प्राप्तानामेवान्याकर्षकत्वोपलम्भादयस्कान्तादीनां तथा लोहाकर्षकत्वं किन्न साध्येत ? प्रमाणबाधान्यत्रापि । अथार्थेन चक्षुषोऽसम्बन्धे कथं तत्र ज्ञानोदयः ? क एवमाह - तत्र ज्ञानोदय:' इति ? श्रात्मनि ज्ञानोदयाभ्युपगमात् । न चाप्राप्यकारित्वे चक्षुषः सकृत्सर्वार्थ प्रकाशकत्वप्रसङ्गः ; प्रतिनियतशक्तित्वा ६२३ नैयायिक – स्पर्शनादिरूप इन्द्रियों में प्राप्यकारित्व देखा जाता है अतः चक्ष में भी इन्द्रियत्व होने से प्राप्यकारित्व सिद्ध करते हैं । जैन - तो फिर हस्त आदि में प्राप्त होकर अन्य पदार्थों का धरना उठाना एवं खींचना आदि कार्य होता हुआ देखकर चुंबक पाषाण में भी लोहेको उठाना खींचनादि कार्य प्राप्त होकर होता है ऐसा क्यों न सिद्ध किया जाय ? तुम कहो कि चुंबक छूकर लोहे को खींचता है ऐसा मानने में प्रत्यक्ष से बाधा आती है, तो वैसे ही चक्ष में प्राप्यकारित्व मानने में प्रत्यक्ष बाधा आती है, प्रत्यक्ष बाधा तो दोनों में समान है । नैयायिक – यदि पदार्थ के साथ चक्ष का संबंध न माना जाय तो वहां ज्ञान का उदय कैसे होगा ? जैन – वहां पर ज्ञानका उदय होता है ऐसा कौन कहता है हम जैन तो आत्मा में पदार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा स्वीकार करते हैं । यदि कोई ऐसी शंका करे कि चक्षु को अप्राप्यकारी माना जाय तो उसके द्वारा एक साथ सब पदार्थों का ज्ञान होने का प्रसंग आवेगा ? सो ऐसी शंका करना बेकार है, क्योंकि पदार्थों में प्रति कार्य के करने में योग्य होता नियत शक्तियां हुआ करती हैं, जो पदार्थ जहां पर जिस है वही उस कार्य को किया करता है यह बात अभी आगे कहने वाले हैं । आप कार्य कारण में अत्यन्त भेद मानते हैं, उस स्थिति में आपसे कोई यदि ऐसा प्रश्न करे कि जब “कार्य और कारण अत्यन्त भिन्न होते हैं तब कोई भी विवक्षित कार्य जैसे अपने कारण से भिन्न है वैसे अन्य सभी कारणों से भी भिन्न है; अतः सभी कार्य एक ही कारण से क्यों नहीं होवेंगे ? अथवा चक्षु से किरणें निकल कर फैलती हैं तो लोक के अन्ततक वे क्यों नहीं फैलती हैं" । तो ऐसे प्रश्न का उत्तर श्रापको भी यही देना होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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