________________
चक्षुःसन्निकर्षवादः
६२१
त्यप्यनुत्तरम् ; संशयात्, न हि तत्र निश्चयोस्ति ते तत्प्रकाशका न गोलकमिति । अनुभूतरूपस्य तेजोद्रव्यस्य दृष्टान्तेपि रूपप्रकाशकत्वाप्रतीतेः । तथाच, न चक्षू रूपप्रकाशकमनुद्भूतरूपत्वाज्जलसंयुक्तानलवत् । द्वितीयपक्षेपि उष्णोदकतेजोरूपं तत्प्रकाशक स्यात् । न हि तत्तत्र नष्टम्, 'अनुभूतम्' इत्यभ्युपगमात् । उद्भूतं तत्तत्प्रकाशकमित्यभ्युपगमे रूपप्रकाशस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायी तस्यैव कार्यो
नैयायिक-गर्म जल में मिले हुए तेजोद्रव्य का भासुररूप अनुभूत है, अतः वह रूप को प्रकाशित नहीं करता है ।
जैन-इसी प्रकार नेत्र की किरणों का तेजोद्रव्य भी अनुभूत भासुररूप वाला है, अत: वह भी रूप को प्रकाशित करने वाला नहीं होना चाहिये ।
नैयायिक-नेत्र का तेजो द्रव्य अनुभूत भासुररूप वाला होता हुआ भी रूप को प्रकाशित करने वाला प्रतीत हो रहा है, अतः उसमें तो रूप प्रकाशकत्व है ही।
जैन-इस विषयमें संशय है, क्योंकि अभी तक यह निश्चित नहीं हो सका है कि किरण चक्ष ही रूप का प्रकाशन करती है, गोलक चक्ष नहीं । तथा आपने अनुमान को प्रस्तुत करते समय दीपक का दृष्टान्त दिया है सो उस दृष्टान्त में यह बात नहीं है कि वह अनुभूतरूप वाला तेजोद्रव्य से निर्मित होकर रूप का प्रकाशन करता हो। फिर तो ऐसा अनुमान प्रयोग होगा कि चक्ष रूपका प्रकाशन नहीं करती, क्योंकि वह अनुभूतरूप वाली है, जैसे जलमें स्थित अग्नि । दूसरा पक्ष मानो तो उष्णजलमें स्थित तेज का जो रूप है वह रूपका प्रकाशक है ऐसा स्वीकार करना होगा।
वहां पर उस तेजस का रूप नष्ट हो गया हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि उष्ण जल में तेजसका रूप अनुभूत है ऐसा आपने माना है। जिसमें भासुररूप उभूत रहता है वह तेजोद्रव्य रूपको प्रकाशित करता है ऐसा स्वीकार करो तो उद्भूत तेजोरूप ही रूप प्रकाशन का कर्त्ता सिद्ध होगा, क्योंकि उसी के साथ रूपप्रकाशन कार्य का अन्वय व्यतिरेक सिद्ध होता है, तेजोद्रव्य के साथ नहीं । जैसे-देवदत्त के निकट पशु, बालक या स्त्री आदि आते हैं तो उसमें हेतु देवदत्त के गुण मंत्र प्रादि हैं, उसी गुण के साथ पशु, स्त्रो आदि के आगमन का अन्वय व्यतिरेक बनता है, अत: वह देवदत्त के गुणका कार्य है, न कि देवदत्त का। इस प्रकार सिद्ध होनेपर "चक्ष स्तैजसं द्रव्यत्वे करणत्वे च सति रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्" अनुमान के हेतु का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org