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चक्षुःसन्निकर्षवादः तैरनुपलम्भो व्यभिचारी; इत्यपि निरस्तम् ; आदित्यरश्मीनामपि रात्रावभावासिद्धिप्रसङ्गात् ।
अथोच्यते-चक्षुः स्वरश्मिसम्बद्धार्थप्रकाशकम् तेजसहवात्प्रदीपवत् । ननु किमनेन चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते, अन्यतः सिद्धानां तेषां ग्राह्यार्थसम्बन्धो वा ? प्रथमपक्षे .पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा, नरनारीनयनानां प्रभासुररश्मिरहितानां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः । हेतोश्च कालात्ययापदिष्टत्वम् । अथादृश्यत्वा. तेषां न प्रत्यक्षबाधा पक्षस्य । नन्वेवं प्रथिव्यादेरपि तत्सत्त्वप्रसङ्गः: तथा हि-पृथिव्या पादयो रश्मिवन्तः सत्त्वादिभ्यः प्रदीपवत् । यथैव हि तेजसत्वं रश्मिवत्तया व्याप्त प्रदीपे प्रतिपन्न तथा सत्त्वादिकमपि ।
अनुपलंभ हेतुसे चक्षु किरणों का अभाव सिद्ध होता है ऐसा कथन व्यभिचरित होता है, अर्थात् दोवाल और दीपक के अन्तराल में दीपक की किरणें होती हुई भी उपलब्ध नहीं होती वैसे पदार्थ की तरफ जाती हुई चक्षु किरणें अंतराल में उपलब्ध नहीं होती हैं ? सो यह कथन गलत है क्योंकि इस तरह के कथन से तो रात्रि में सूर्य की किरणों का भी अभाव नहीं मानने का प्रसंग प्राप्त होगा अर्थात् सूर्यकिरणों का रात्रि में भी सद्भाव है ऐसा मानना पड़ेगा।
नैयायिक-"चक्षुः स्वरश्मिसंबद्धार्थप्रकाशकम् तेजसत्वातु प्रदीपवत्" चक्षु अपनी किरणों से संबद्ध हुए पदार्थ का प्रकाशन करती है क्योंकि वह तेजस है (तेजोद्रव्य से बनी है ) जैसा दीपक तेजोद्रव्यरूप है, अतः अपनी किरणों से संबद्ध हुए पदार्थ का प्रकाशन करता है।
जैन-इस अनुमान के द्वारा आप क्या सिद्ध करना चाहते हो ? चक्षु की किरणें सिद्ध करना चाहते हो या अन्य किसी प्रमाण से सिद्ध हुई उन किरणों का संबंध ग्राह्यपदार्थ के साथ सिद्ध करना चाहते हो ? प्रथम पक्ष के अनुसार यदि आप चक्ष की किरणे सिद्ध करना चाहो तो पक्ष में प्रत्यक्ष से बाधा आती है, क्योंकि स्त्रीपुरुषों के नेत्र भासुररश्मियों से (किरणों से) रहित ही प्रत्यक्ष से प्रतीति में आते हैं, अतः जब पक्ष ही प्रत्यक्ष से बाधित है तो उसमें प्रवृत्त हुआ जो हेतु ( तैजसत्व है ) है वह कालात्ययापदिष्ट होता है, [ जिस हेतुका पक्ष प्रत्यक्ष से बाधित होता है वह हेतु कालात्ययापदिष्ट कहलाता है ] ।
नैयायिक-नयनकिरणें अदृश्य हैं, अतः पक्ष में ( चक्षु में ) प्रत्यक्ष बाधा नहीं आती?
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