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विशदता के विचार का सारांश
विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। विना किसी अन्य प्रमाण की सहायता लिये वस्तु को स्पष्ट जानना विशदता है । बौद्ध लोग अचानक धूम देखकर होनेवाले अग्निके ज्ञान में प्रत्यक्षता मानते हैं, व्याप्तिज्ञान को भी प्रत्यक्ष माननेवाले बैठे हैं; किन्तु ये ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हैं, क्योंकि एक तो ये अपने अपने विषयों को जानने में अन्य प्रमाणोंका सहारा लेते हैं और दूसरे वे अस्पष्ट प्रतिभास वाले हैं।
बौद्ध-यह अस्पष्टता पदार्थ का धर्म है या ज्ञान का ? ज्ञान का धर्म है तो वह अस्पष्टता पदार्थ में कैसे आयी ? पदार्थ का धर्म कहो तो उससे ज्ञान क्यों अस्पष्ट [परोक्ष] कहलाया ? इसलिये उस अस्पष्टता के कारण अनुमान या व्याप्तिज्ञान को परोक्ष कहना प्रसिद्ध है ?
जैन-यह कहना ठीक नहीं क्योंकि यही बात स्पष्टता में भी लगा सकते हैं, स्पष्टता ज्ञान का धर्म है तो पदार्थ स्पष्ट कैसे हुआ ? और पदार्थ का धर्म स्पष्टता है तो ज्ञान स्पष्ट कैसे हुआ इत्यादि ? सो बात ऐसी है कि चाहे स्पष्टता हो चाहे अस्पष्टता-दोनों ही ज्ञान के धर्म हैं । स्पष्टज्ञानावरण के क्षयोपशम से स्पष्ट ज्ञान पैदा होता है और अस्पष्टज्ञानावरण के क्षयोपशम से अस्पष्ट ज्ञान पैदा होता है । जिन ज्ञानों में यह स्पष्टता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष है और जिन ज्ञानों में अस्पष्टता है वे परोक्ष हैं । कोई २ अन्य मत वाले "ज्ञान में स्पष्टता इन्द्रियों से प्राती हैऐसा मानते हैं किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि इन्द्रियों से ज्ञान में स्पष्टता होती तो दूरवर्ती पदार्थ का ग्रहण स्पष्ट क्यों नहीं होता, इन्द्रियां तो हैं ही ? यदि कहा जाय कि ऐसी ही योग्यता है ? तो यह योग्यता ज्ञानमें हो सकती है, अपने २ ज्ञानावरणके क्षयोपशम से स्पष्ट या अस्पष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है, इसी को योग्यता कहते हैं । इसप्रकार जो विना सहारे वस्तु को स्पष्ट जाने वह प्रत्यक्ष प्रमाण है यह सिद्ध हुआ।
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