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________________ विशदत्वविचार: ५६१ स्यात् 'ता! वात्राग्निः पारो वा' इति सन्निहितवत् । न खलु सन्निहितं पावकं पश्यतस्तत्र सन्देहोस्ति । सन्देहे वा शब्दाल्लिङ्गाद्वा प्रति(ती)यतोप्यसौ स्यात् । तथा चेदमसङ्गतम्-"शब्दाल्लिङ्गाद्वा विशेषप्रतिपत्तौ न तत्र सन्देहः" [ ] इति । तन्नदं प्रत्यक्षम् । किं तर्हि ? लिङ्गदर्शनप्रभवत्वादनुमानम् । 'दृष्टान्तमन्त रेणाप्यनुमानं भवति' इत्येतच्चाग्रे वक्ष्यते । व्याप्तिज्ञानं चास्पष्टत्वेनाप्रत्यक्षं व्यवहारिणां सुप्रसिद्धम् । व्यवहारानुकल्येन च प्रमाणचिन्ता प्रतन्यते "प्रामाण्यं व्यवहारेण" [ प्रमाणवा० ३।५ ] इत्यादिवचनात् । न च तेषां सर्वे क्षणिका इसतरह शब्द और लिङ्ग से होनेवाले ज्ञान में यदि संशय रहना स्वीकार करोगे तो आपका ही यह वाक्य "शब्द से अथवा लिङ्ग से वस्तु का विशेष धर्म जान लेनेपर उसमें सशय नहीं रहता है" असत्य हो जावेगा ? इसलिये अकस्मात् धूमदर्शन से होनेवाला अग्निका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहलाता, किन्तु हेतु से उत्पन्न होने के कारण यह ज्ञान अनुमान कहलाता है । दृष्टान्त का अभाव होने से यह अनुमानरूप नहीं हो सकता ऐसा कहो तो हम प्रागे यह कहनेवाले हैं कि अनुमान विना दृष्टान्त के भी होता । जो कोई धूमवान होता है वह अग्निवान होता है ऐसा जो व्याप्तिज्ञान है; वह अस्पष्ट होने से अप्रत्यक्ष यह बात तो सर्वव्यवहारी लोगों में भी प्रसिद्ध है । व्यवहार की अनुकूलता से ही तो प्रमाण के विषय में विमर्श होता है । इसी बात को प्रापके ग्रन्थ में लिखा है "प्रामाण्यं व्यवहारेण" प्रमाण में प्रमाणता व्यवहार से आती है। इत्यादि, तथा जो व्यवहारी पुरुष हैं वे समस्त क्षणिकपदार्थों को तथा कृतक पदार्थों को धूम आदि को एवं अग्नि आदिको स्पष्ट ज्ञानका विषय नहीं मानते हैं। यदि ये सब पदार्थ प्रत्यक्ष के विषय माने जावे तो फिर अनुमानप्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रहती ? क्योंकि जब सब व्याप्य और व्यापक एक साथ ही स्पष्टरूप से निश्चित हो जाते हैं तब उस पुरुषको अनुमान द्वारा जानने के लिए कुछ बाकी रहा ही नहीं है कि जिसे वह अनुमान से अब सिद्ध करे । यदि पदार्थ के प्रत्यक्ष होनेपर भी अनुमानकी अावश्यकता पड़ती है तो योगियोंको भी अनुमानकी आवश्यकता होनी चाहिये ? वे भी प्रत्यक्ष से पदार्थों को जानने के बाद अनुमान का सहारा लेने लगेंगे ? निश्चित हए पदार्थ में समारोप-संशय-विपर्यय और अनध्यवसाय होने का भी विरोध है। निश्चित हो और फिर उसमें समारोप हो ऐसा कहना तो विरुद्ध ही है। शंका -प्रत्यक्ष प्रतिभासित अर्थ में तत्काल तो समारोप नहीं होता; किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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