________________
अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः णान्यसंसृष्टः प्रथमतोऽर्थोऽनुभूयते, पश्चादभावप्रमाणादन्यांसंसृष्ट इति क्रमप्रतीतिरस्ति, प्रथममेवान्यासंसृष्ट स्यार्थस्याध्यक्ष प्रतिभासनात् । न चान्यासंसृष्टार्थवेदनादन्यत्तदभाववेदनं नाम ।
एतेनैतदपि प्रत्युक्तम् "स्वरूपपररूपाभ्याम्" इत्यादि; सर्वैः सर्वदोभयरूपस्यैवान्तर्बहिर्वाsर्थस्य प्रतिसंवेदनात्, अन्यथा तद्भावप्रसङ्गात् ।
___ यदप्युक्तम्-“यस्य यत्र यदोभूतिः" इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; न ह्यनुभूतमनु भूतं नाम । नापि जिघृक्षाप्रभवं सर्वज्ञानम् ; इन्द्रियमनोमात्रभावे भावात्तदभावे चाभावात्तस्य ।
से उसके अभाव का ज्ञान पृथक तो है नहीं मतलब घट से रहित भूतल का ज्ञान ही तो घट के प्रभाव का ज्ञान है, और वह प्रभाव प्रत्यक्ष से ही ज्ञात हो चुका है, अब उसे जानने के लिये प्रभाव प्रमाण की क्या आवश्यकता है । तथा "स्वरूपपररूपाभ्यां ......इत्यादि काटिकोक्त विषय निराकृत हुआ समझना चाहिये।
इसमें कहा गया है कि स्वरूप और पररूप से वस्तु सद् और असद् रूप है, उसमें से सदुरूप को प्रत्यक्षादि प्रमाण जानता है और प्रसद्रूप को अभाव प्रमाण जानता है, सो यह कथन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि सभी प्रमाण हमेशा ही सद् असदु दोनों स्वरूप वाली अन्तर्बहि वस्तु को जानते हैं-अर्थात् अंतरंग वस्तु जीव और बहिरंग जड़ पदार्थ इनके सदु और असदु अंशों को प्रत्येक प्रमाण जानता है, यदि ऐसा जानना नहीं हो तो उसके प्रभाव होने का प्रसंग प्राप्त होगा। और भी कहा था कि
"भस्य यत्र यदोद्भूतिजिघृक्षा चोपजायते ।
वेद्यतेऽनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ।। १ ।। सदसदात्मक वस्तुमें जिस अंशकी जहां, जब अभिव्यक्ति होती है तथा उसे जानने की जब इच्छा होती है, तब उसीका अनुभव प्रमाण के द्वारा होता है और उस प्रमाण को वही नाम दिया जाता है ॥ १ ॥ इत्यादि सो यह सब प्रलाप मात्र है क्योंकि जब वस्तुका प्रत्यक्ष में अनुभव हो जाता है तो फिर उसमें अनुद्भूत अंश क्या रह जाता है कि जिसे जानने के लिये अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति हो । तथा जितने ज्ञान होते हैं वे सभी इच्छापूर्वक ही होते हैं ऐसा नियम नहीं है, ज्ञानमें तो इन्द्रिय और मनका नियम है इन्द्रियां और मनके होनेपर ज्ञान होता है और उनके अभाव होनेपर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org