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अर्थापत्तः पुनविवेचनं
यत्पुनरपित्त्यर्थापत्तेरुदाहरणं वाचकसामर्थ्यात्तन्नित्यत्वज्ञानमुक्तम् । तदप्ययुक्तम् ; वाचकसामर्थ्यस्य तत्प्रत्यनन्यथाभवनासिद्ध । निराकरिष्यते चाग्रे नित्यत्वं शब्दस्येत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
याप्यभावार्थापत्ति:-जीवंश्च त्रोऽन्यत्रास्ति गृहेऽभावादिति; तत्रापि किं गृहे यत्तस्य जीवन तदेव गृहे चैत्राभावस्य विशेषणम्, उतान्यत्र ? प्रथमपक्षे तत्राभावस्य विशेष्यस्यासिद्धिः, यदा हि
जब प्राचार्य मीमांसकादि प्रवादी द्वारा मान्य अर्थापत्ति प्रमाणका अनुमान प्रमाणमें अन्तर्भाव कर रहे थे तब अतीन्द्रिय शक्ति के विषयमें चर्चा हुई, नैयायिक अतीन्द्रिय शक्तिको नहीं मानते अतः जैनाचार्यने उसको अनुमानादिप्रमाणद्वारा भली प्रकार सिद्ध किया । अब अर्थापत्ति का जो अधूरा विषय रह गया था उसका पुनः विवेचन करते हैं-अर्थापत्तिके छ: भेद बताये थे-प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति १, अनुमानपूर्विका अर्थापत्ति २, आगमपूर्विका अर्थापत्ति ३, उपमानपूर्विका अर्थापत्ति ४, अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति ५, और अभावपूर्विका अर्थापत्ति ६, उनमें से प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम, उपमान पूर्वक होने वाली अर्थापत्तियों का तो अनुमान प्रमाण में ही अन्तर्भाव होता है, ऐसा प्रकट कर आये हैं । अब अर्थापत्ति पूर्विका अर्थापत्ति का निरसन करते हैं-अर्थापत्ति पूर्वक होने वाली अर्थापत्ति का उदाहरण दिया था कि शब्द में पहले अर्थापत्ति के द्वारा वाचकत्व की सामर्थ्य सिद्ध करना और पुन: उसी शब्दमें नित्यत्व सिद्ध करना सो यह अर्थापत्ति का वर्णन अयुक्त है, क्योंकि शब्द में जो वाचक सामर्थ्य है, उसका नित्यत्व के साथ कोई अकाट्य संबंध नहीं है, अर्थात् नित्यत्वके विना वाचक सामर्थ्य न हो ऐसी बात नहीं है । हम जैन आगे प्रकरणानुसार शब्द की नित्यताका खण्डन करनेवाले हैं । इसलिये अर्थापत्ति पूर्वक होनेवाली अर्थापत्ति सिद्ध नहीं होती है, तथा-प्रभावपूर्विका अर्थापत्ति का उदाहरण दिया था कि “जीवंश्च त्रोऽन्यत्रास्ति गृहेऽभावात्" जीवत चैत्रनामा पुरुष अन्यत्र है, क्योंकि उसका घर में प्रभाव है, सो इस उदाहरण में प्रश्न होता है, कि चैत्र का घर में जो जीवन है, वही घर में चैत्रा
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