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________________ ५३६ प्रमेयकमलमार्तण्डे ऽनुपपद्यमानबाधकम् यथा तन्तुमात्रापेक्षया पटः, न च तथेदम्, तस्माद्यथोक्तसाध्यम्' इति; हेतोरसिद्ध; तन्मात्रादुत्पत्तौ कार्यस्य प्रागुक्तन्यायेनानेकबाधकोपपत्तेः ।। स्वरूपसहकारिव्यतिरेकेण शक्त: प्रतीत्यभावादसत्त्वे वा स्रग्वनितादिदृष्ट कारणकलापव्यतिरेकेणादृष्टस्याप्यप्रतीतितोऽसत्त्वं स्यात्, तथा चासाधारणनिमित्तकारणाय दत्तो जलाञ्जलिः । कथं चवंवादिनो जगतो महेश्वरनिमित्तत्वं सिध्येत् ? विचित्रक्षित्यादिदृष्ट कारणकलापादेवांकुरादिविचित्र भी असत्व मानना होगा ? फिर तो आपने इस प्रकार की मान्यता से असाधारण [विशेष] कारणको जलांजलि दी है ऐसा समझना होगा । किंच-यदि आप स्वरूप मात्रको कार्य का उत्पादक मानते हैं तो जगत सृष्टि का कारण ईश्वर है ऐसा आप किस प्रकार से सिद्ध कर सकते हैं ? क्योंकि विचित्र पृथिवी आदि जो कि प्रत्यक्ष से दिखाई दे रहे हैं उन्हीं कारण कलापों से विचित्र अनेक प्रकार के अंकुर आदि कार्य उत्पन्न होते हुए प्रतीति में आते हैं, फिर उन पृथिवी पर्वत वृक्ष आदि का कर्ता एक ईश्वर है ऐसी कल्पना पाप सृष्टि कर्त्तावादी क्यों करते हैं ? यदि कहा जाय कि अनुमान से पृथिवी आदि का कारण जो ईश्वर है उसको सिद्ध करते हैं तो यही बात शक्ति में भी घटित कर लेनी चाहिये, देखो-जो कार्य होता है वह असाधारण धर्मवाले कारण ( शक्ति ) से ही होता है, ( साध्य ) मात्र सहकारी या इतर कारण से नहीं होता, जैसे सुख, अंकुर आदि में असाधारण कारण [अदृष्ट-पुण्य ईश्वर आदि माने हैं, इन कारणों से सुखादिक होते हैं, मात्र स्त्री या पृथिवी आदि सहकारी कारणों से सुखादिक नहीं होते हैं । ऐसा आप स्वीकार करते हैं-इसी तरह स्फोट आदि समस्त उत्पन्न होते हुए वस्तुभूत कार्य हैं, अतः वे भी असाधारण धर्मवाले कारण से ही उत्पन्न होते हैं । इसतरह यहां तक ग्राहक प्रमाण का अभाव होनेसे शक्ति को नहीं मानते हैं, इस पर पक्ष का निरसन किया और यह सिद्ध करके बताया कि अनुमान प्रमाण शक्ति का सद्भाव सिद्ध करता है। भावार्थ-नैयायिक ने शक्ति को नहीं माना है, प्रत्येक कार्य कारणके स्वरूप से और सहकारी मात्र से उत्पन्न होता है, कोई अदृष्ट-अतीन्द्रिय कारण की जरूरत नहीं होती ऐसा उन्होंने माना है, किन्तु यह मान्यता लौकिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से असत् है, लोक व्यवहारमें अनेक मनुष्य समानरूप से पुष्ट और निरोग भी रहते हैं किन्तु कार्यभार वहन करने की क्षमता उनमें अलग अलग हुआ करती है, उससे सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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