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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यनयोर्भेदः; नैता क्तम् ; न हि लिङ्ग सपक्षानुगममात्रेण गमकम् वज्रस्य लोहलेख्यत्वे पार्थिवत्ववत्, श्यामत्वे तत्पुत्रत्ववद्वा । कि तहि ? 'अन्तर्व्याप्तिबलेन' इति प्रतिपादयिष्यते, तत्र च कि सपक्षानुगमेनेति च ? तदभावे गमकत्वमेवास्य कथमिति चेत् ? यथार्थापत्त्युत्थापकार्थस्य । तथा चार्थापत्ति देखा जाता, अन्यथा वज्र में लोह लेख्यत्व सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त हुए पार्थिवत्व हेतु में अथवा गर्भस्थ मैत्र के पुत्र श्याम सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त हुए तत्पुत्रत्व हेतुमें भी स्वसाध्य की गमकता मानना पड़ेगी ? क्योंकि ये हेतु सपक्षसत्ववाले हैं । परन्तु ऐसा नहीं माना जाता है। भावार्थ- "वज्र लोहलेख्यं पार्थिवत्वात् पाषाणादिवत्" वज्र-हीरा-लोहेसे खण्डित हो सकता है क्योंकि वह पार्थिव है। जैसे पाषाण पार्थिव है अतः वह लोहलेख्य होता है, सो इस अनुमान में पार्थित्वनामा हेतु सपक्षसत्ववाला होते हुए भी सदोष है । क्योंकि सभी पार्थिव पदार्थ लोहलेख्य नहीं होते हैं । दूसरा अनुमान "गर्भस्थो मैत्रीपुत्र: श्याम: तत्पुत्रत्वात् इतरतत्पुत्रवत्" गर्भस्थ मैत्रीका पुत्र श्याम होगा, क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है । जैसे उसके और पुत्र काले हैं । सो यहां पर "तत्पुत्रत्वात्" हेतु सपक्षसत्ववाला होते हुए भी व्यभिचरित है, क्योंकि मैत्री के सारे पुत्र काले ही हों यह बात नहीं है। उसी प्रकार प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा सर्वोपसंहार से मात्र दृष्टान्त में स्वसाध्यका निश्चय करानेवाला हेतु देखा जाता है सो इतने मात्रसे वह हेतु स्वसाध्य को सिद्ध करने वाला नहीं हो जाता है। जैसे तत्पुत्रत्व हेतु सपक्ष में-अन्य मैत्री पुत्रों में श्यामपने के साथ रहते हुए भी अपने साध्य गर्भस्थ बालक में श्यामत्व का साधक नहीं होता है । कोई पूछे कि फिर किसप्रकार का हेतु स्वसाध्यका सिद्ध करनेवाला होता है ? तो उसका उत्तर यह है कि अन्तर्व्याप्तिके बलसे हेतु स्वसाध्यका साधक बन जाता है, [पक्ष में ही साध्य और साधन की व्याप्ति-अविनाभाव बतलाना अन्तर्व्याप्ति कहलाती है ] इस अन्तर्व्याप्तिका हम "एतद्द्वयमेवानुमानाङ्ग नोदाहरणं" इस सूत्र द्वारा आगे प्रतिपादन करनेवाले हैं, अतः सपक्ष में सत्त्व होने मात्रसे कोई हेतु स्वसाध्यका गमक (निश्चायक) नहीं होता है, निश्चित हुप्रा । शंका - बिना सपक्षसत्त्व के हेतु स्वसाध्य का गमक कैसे हो सकता है ? समाधान-जैसे आप मीमांसक अर्थापत्ति के उत्थापक पदार्थ में अन्तर्व्याप्ति के बलसे ( पक्ष में ही साध्यसाधनकी व्याप्ति सिद्ध होनेसे ) गमकता [ स्वसाध्य साधकता ] मानते हैं ? इसीप्रकार से यहां पर भी मानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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