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प्रमेयकमलमार्तण्डे दिशब्दा हि वर्तमानास्तदर्थस्तु भूतो भविष्यश्च. इति कुतोऽर्थैः शब्दस्यान्वेतृत्वम् ? नित्यविभुत्वाभ्याम् तत्त्वे चातिप्रसङ्गः । तदुक्तम्
"अन्त्रयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ।। १ ।। यत्र धूमोस्ति तत्राग्निरस्तित्वेनान्वयः स्फुटः। न त्वेवं यत्र शब्दोस्ति तत्रार्थोस्तीति निश्चयः ।। २ ।। न तावद्यत्र देशेऽसौ न तत्काले च गम्यते । भवेन्नित्यविभुत्वाच्च त्सर्वार्थेष्वपि तत्समम् ।। ३ ।। तेन सर्वत्र दृष्ट त्वाद्वयतिरेकस्य चागतेः। सर्वशब्दै रशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते ।। ४ ।।"
[ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ८५-८८ ]
अन्वेतृत्व शब्द और अर्थ में संभव नहीं, इसका भी कारण यह है कि शब्दसे प्राक्रांत जो देश है उस देश में (कानमें या मुख में) अर्थका सद्भाव तो है नहीं; देखिये जिस स्थान पर पिंडखजूर आदि शब्द सुनायी दे रहा है उस स्थान पर पिंडखजूर नामा पदार्थ तो मौजद है नहीं [कर्ण प्रदेशमें खजूर तो मौजूद नहीं] तथा शब्दके काल में अर्थका होना भी जरूरी नहीं, रावण शंख चक्री आदि शब्द तो अभी वर्तमान में मौजूद हैं किन्तु उनके अर्थ तो भूत और भावी रूप हैं ? फिर किसप्रकार अर्थों के साथ शब्दका अन्वेतापन माना जा सकता है ? तथा हम मीमांसक शब्दको नित्य और व्यापक मानते हैं सो यदि शब्दका अर्थ के साथ अन्वय है तो हर किसो गो आदि शब्दसे अश्त्र आदि अर्थकी प्रतीति होने का अति प्रसंग आता है ? क्योंकि शब्द व्यापक होनेसे अश्व आदि सभी पदार्थों में अन्वित है । इस विषय को हमारे मान्य ग्रन्थमें भी कहा है
शब्दका प्रमेयार्थके साथ अन्वय नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमेयार्थों का अन्वय तो उनके व्यापार अर्थात् सद्भावसे निश्चित होता है ॥१॥ जैसे कि जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है इसप्रकारका अन्वय अग्निके सद्भावसे ही तो जाना जाता है, ऐसा शब्द और अर्थ में घटित नहीं होता कि जहां जहां विवक्षित शब्द है वहां वहां अर्थ अवश्य है ॥२॥ शब्द और अर्थका देशान्वय या कालान्वय अर्थात् जिस जिस स्थान पर शब्द है उस उस स्थान पर अर्थ है, जिस जिस काल में शब्द है उस
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