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________________ ४९० प्रमेयकमलमार्त्तण्डे न प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वम्; न; शब्दत्वस्यागमकत्वात्, त्वात् । उक्तं च गोशब्दत्वस्य च निषेत्स्यमानत्वेनासिद्ध Jain Education International "सामान्यविषयत्वं हि पदस्य स्थापयिष्यते । धर्मी धर्मविशिष्टश्व लिङ्गीत्येतच्च साधितम् ॥ न तावदनुमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् । " [ मी० इलो० शब्दपरि० श्लो• ५५-५६ ] "अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्षः कस्मान्न करूप्यते || प्रतिज्ञार्थकदेशो हि हेतुस्तत्र प्रसज्यते । " [ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो• ६२-६३ ] व्यापक एवं एक होता है वह अकेले एक गो शब्द में किसप्रकार रह सकता है ? अर्थात् नहीं । ) मीमांसा श्लोकवार्तिक में कहा है कि गो श्रादि पदका सामान्य विषयत्व होता है ऐसा हम स्थापित करनेवाले ही हैं तथा इसबातको तो प्रथम ही सिद्ध कर दिया है कि धर्मी और धर्म विशिष्ट को विषय करनेवाला अनुमान हुआ करता है, सो गो आदि शब्दसे होनेवाला ज्ञान, और धर्मी एवं धर्म विशिष्ट निमित्त से होनेवाला ज्ञान ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? प्रतः बौद्धका यह कहना कि शब्दजन्यज्ञान अनुमान अन्तर्भूत होता है सो गलत है । शब्दजन्य ज्ञानको अनुमान प्रमाण तब तक नहीं कह सकते कि जबतक उसका विषय जो धर्मी और धर्म विशिष्ट है उसको ग्रहण न किया जाय । यदि कोई शंका करे कि "शब्द अर्थवान होता है क्योंकि वह शब्द रूप है" इत्यादि अनुमान द्वारा शब्द और अर्थका अविनाभाव सिद्ध करके फिर उस शब्दजन्य ज्ञानको अनुमानमें अन्तर्भूत किया जाय तो इस पक्षमें क्या बाधा है ? सो इस शंकाका यह समाधान है कि उपर्युक्त अनुमान में दिया गया शब्दरूप हेतु प्रतिज्ञाका एक देश होनेसे असिद्ध है । यदि शब्दको हेतु न बनाकर शब्दत्वको बनावे तो वह हेतु भी साध्यका गमक नहीं हो पाता, क्योंकि गौ आदि शब्दभूत व्यक्ति में शब्दत्व सामान्य रहनेका निषेध है ऐसा हम आगे निश्चित करनेवाले हैं । गोशब्द में शब्दत्व सामान्यका निषेध करनेका कारण भी यह है कि गौ शब्दभूत विशेष्य मात्र एक व्यक्ति रूप है उसमें शब्दत्व सामान्य रूप विशेषरण रहता है तो उसको भी एक रूप होने का प्रसंग आता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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