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प्रमेयद्वित्वात् प्रमाणद्वित्वविचारः
अस्तु नाम प्रत्यक्षानुमानभेदात्प्रमाण विध्यमित्यारेकापनोदार्थम् --
प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ इत्याह । न खलु प्रत्यक्षानुमानयोाख्येयागमादिप्रमाणभेदानामन्तर्भावः सम्भवति यतः सौगतोपकल्पितः प्रमाणसंख्यानियमो व्यवतिष्ठत ।
प्रमैयद्व विध्यात् प्रमाणस्य द्वविध्यमेवेत्यप्यसम्भाव्यम्, तद्वविध्यासिद्ध:, 'एक एव हि
__ यहांपर अनुमानप्रमाणको सिद्ध हुआ देखकर सौगत प्रवादी कहते हैं कि जैनने जो प्रमाणकी दो संख्या बतलायी है वह ठीक ही है, प्रमाणको प्रत्यक्ष और अनुमान इसप्रकार दो तरहका मानना चाहिये । इस तरह आक्षेप होने पर आचार्य कहते हैं।
प्रत्यक्षतरभेदात् ॥ २ ॥ प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका है, बौद्धकी मान्यताके समान वह प्रत्यक्ष और अनुमानके भेदसे दो प्रकारका नहीं है, क्योंकि इस संख्या में आगे कहे जानेवाले पागमादि प्रमाणोंका अन्तर्भाव नहीं हो पाता।
बौद्ध-प्रमाणका विषय जो प्रमेय है वह दो प्रकारका होनेसे प्रमाण भी दो प्रकारका स्वीकार किया गया है ।
जैन - ऐसा नहीं है, प्रमेय का दो पना ही जब प्रसिद्ध है तब उससे प्रमाण के दो भेद किस प्रकार सिद्ध हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं सिद्ध हो सकते । प्रमाणका विषय सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही है ऐसा हम आगे सिद्ध करनेवाले हैं। प्राप बौद्ध अनुमान का विषय केवल एक सामान्य ही है ऐसा मानते हैं सो इस लक्षण वाले अनमान द्वारा विशेष विषयोंमें प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। यह तो निश्चित बात है कि अन्य विषयवाला ज्ञान अन्य विषयोंमें प्रवृत्ति नहीं करता, यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो अतिप्रसंग होगा, अर्थात् फिर तो घटको विषय करनेवाला ज्ञान पट में प्रवृत्ति कराने लगेगा।
बौद्ध -हेतुसे अनुमित किये गये सामान्यसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है और उस प्रतिपत्तिसे विशेषमें प्रवृत्ति हो जाती है।
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