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प्रमेय द्वित्वात् प्रमाणद्वित्ववादका पूर्वपक्ष प्रमेय अर्थात् पदार्थ दो प्रकारके हैं अत: प्रमाण के दो भेद होते हैं ।
तस्यविषय: स्वलक्षणम् ॥ १२ ॥ [न्याय बिन्दु पृष्ठ ६६ ] प्रत्यक्षका विषय स्वलक्षण है । स्वलक्षण क्या है इस बातको-निर्विकल्प प्रत्यक्षका वर्णन करते हुए कह आये हैं कि जिस पदार्थकी निकटतासे ज्ञानमें स्पष्टता आती है और दूरी होनेसे अस्पष्टता आती है वह स्वलक्षण है। तदेव परमार्थसत् ।।१४।। अर्थक्रिया सामर्थ्य लक्षणत्वादु वस्तुनः ॥१५॥
( न्याय बिन्दुः पृ० ७६-७८ ) यह स्वलक्षण ही परमार्थ है । अर्थक्रिया में जो समर्थ है वही वस्तुका स्वरूप है और वही स्वलक्षण है- (असाधारण रूप है )। अन्यत् सामान्यलक्षणम् ।।१६।। सोऽनुमानस्य विषयः ।।१७।।
[ पृष्ठ ७६-८० ] इस स्वलक्षणसे पृथक् सामान्य लक्षण है, और यह अनुमानका विषय है, [ अनुमानके द्वारा जानने योग्य है । ] वस्तुके साधारण रूप का सामान्य लक्षण क्या है ? सो इस विषयमें कहा जाता है कि धर्म ( रूप आदि परमाणु ) क्षणिक हैं इन धर्मोके पुजमें ( परमाणु समूहमें ) जल लाना आदिका सामर्थ्य उत्पन्न होता है । जल लाना आदि अर्थक्रियामें समर्थ जो वस्तु क्षण होता है वही स्वलक्षण कहलाता है । इसमें देशकी दृष्टिसे विस्तार नहीं है और कालकी दृष्टिसे स्थिरता भी नहीं है । इसका स्वरूप यही है कि अर्थक्रिया का सामर्थ्य होना है, और अर्थक्रिया का सामर्थ्य एक क्षण में ही रहता है इस बातको बौद्ध ग्रन्थों में अनेक जगह सिद्ध किया है । अतः वस्तुका अर्थक्रिया समर्थ एक क्षण ही स्वलक्षण है। इसमें जो स्थूलता या विस्तार भासित होता है वह सिर्फज्ञान में प्रतीत होता है। वह कोई वस्तुका धर्म नहीं है । वह प्रतीति इसी प्रकार होती है कि जैसे दूर से भिन्न भिन्न वृक्षों में कुजकी प्रतीति होती है वस्तु में स्थिरताकी प्रतीति भी होती है किन्तु यह सब कोई तथ्य नहीं है । तथ्य तो यह है कि
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