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प्रमेयकमलमार्तण्डे परमागमार्थो विषयो यस्य स तथोक्तस्तम् । भूयोपि कीदृशम् ? प्रोक्त प्रकृष्ट मुक्त वचनं यस्यासौ प्रोक्तस्तम् । भूयोपि कथम्भूतम् ? प्रमालक्षणम् ।। श्रीः ।।
इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे प्रथम: परिच्छेदः समाप्तः ।। श्रीः ।।
सम्यक् ज्ञान को देने वाले हैं, द्रव्यकर्मरूपमल के अभाव के आश्रयभूत हैं, विद्यानंदसमन्तभद्र अर्थात् केवलज्ञान, आनंद-सुख सब प्रकार से कल्याण के प्रदाता होने से सदा आनंददायी हैं। रागादिरूप भावकर्म से विहीन हैं । परमागमार्थ जिनका विषय है, और जो उत्कृष्टवचन युक्त हैं ।
इस प्रकार परीक्षामुख के अलंकार स्वरूप श्री प्रभाचन्द्राचार्य विरचित प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रथमाध्याय का यह हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ।
प्रामाण्यवाद का सारांश
प्रामाण्यके विषयमें मीमांसकका पूर्वपक्ष-प्रमाणमें प्रामाण्य [ज्ञानमें सत्यता] अपने आप ही पाता है अथवा यों कहिये कि प्रमाण सत्यताके साथ ही उत्पन्न होता है। इस विषयमें जैनका अभिप्राय यह रहता है कि प्रमाण में प्रामाण्य परसे भी आता है, गुण युक्त इन्द्रियां आदिके होनेसे प्रमाणभूत ज्ञान प्रगट होता है। किन्तु ऐसा कहना शक्य नहीं, क्योंकि इन्द्रियादिके गुणोंको ग्रहण करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तो गुण इसलिये ग्रहण नहीं होते कि गुण अतीन्द्रिय हुआ करते हैं । अनुमान द्वारा गुणोंका ग्रहण होना माने तो उसके लिये अविनाभावी हेतु चाहिये, गुणोंके प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण हेतुका अविनाभाव ग्रहण होना भी अशक्य है, अतः अनुमान गुणोंका ग्राहक नहीं बन सकता। इसी तरह अन्य प्रमाण भी गुणोंके ग्राहक नहीं हैं । प्रमाणकी ज्ञप्ति भी स्वतः हुआ करती है, यदि कारण गुणों की [इन्द्रियादि के गुणोंकी अपेक्षा अथवा संवाद प्रत्ययकी अपेक्षा को लेकर ज्ञप्ति [जानना का होना माने तो अनवस्था होगी, अर्थात् कोई एक विवक्षित ज्ञान अपने विषयमें अन्य संवादक ज्ञान की अपेक्षा रखता है तो वह संवादक भी अन्य संवादककी अपेक्षा रखेगा, और
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