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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्क्रभावाल्लघीयसी ।
वेदे तेनाप्रमाणत्वं नाशङ्कामपि गच्छति ॥ १ ॥ " [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६८ ]
स्थितं चैतच्चोदनाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणमनिराकृतदोषकाररणप्रभवत्वात् द्विचन्द्रादिबुद्धिवत् । न चैतदसिद्धम्, गुणवतो वक्त रभावे तत्र दोषाभावासिद्ध ेः । नाप्यनैकान्तिकं विरुद्ध वा; दुष्टकारणप्रभवत्वाप्रामाण्ययोरविनाभावस्य मिथ्याज्ञाने सुप्रसिद्धि (ख) त्वादिति ।
सिद्ध ं सर्व जनप्रबोधजननं सद्योऽकलङ्काश्रयम्, विद्यानन्दरामन्तभद्रगुरणतो नित्यं मनोनन्दनम् ।
ज्ञान या रस्सी में सर्पका ज्ञान, सीप में चांदी आदि का ज्ञान दोषों को निराकृत किये बिना उत्पन्न होता है, अतः वह प्रमाण नहीं होता, इस अनुमान में दिया गया "अनिराकृतदोषकारणप्रभवत्वात्" यह हेतु प्रसिद्ध नहीं है । क्योंकि वेद में गुणवान् वक्ता का प्रभाव तो भले हो किन्तु इतने मात्र से उसमें दोषों का प्रभाव तो सिद्ध नहीं होता । इसी तरह यह हेतु श्रनैकान्तिक या विरुद्ध दोष युक्त भी नहीं है- क्योंकि दोषयुक्त कारण से उत्पन्न होना और अप्रामाण्य का होना इन दोनों का परस्पर में अविनाभाव है, और यह मिथ्याज्ञान में स्पष्ट हो प्रतीत होता है ।
भावार्थ - भाट्ट प्रत्यक्षादि प्रमाणों में प्रामाण्य स्वतः ही रहता है ऐसा मानते हैं उनकी मान्यता का खंडन करते हुए श्रागम प्रमाण के प्रामाण्य का विचार किया जा रहा है, आगम अर्थात् भाट्ट का इष्टवेद सर्वोपरि आगम है । वे वेद को ही सर्वथा प्रमाणभूत मानते हैं, इसका कारण यही है कि वह अपौरुषेय है, सो यहां पर प्राचार्यने अपौरुषेय वेद को असिद्ध कहकर ही छोड़ दिया है, क्योंकि आगे इस पर पृथक् प्रकरण लिखा जानेवाला है । भाट्ट वेदको प्रामाण्य इसलिये मानते हैं कि वहां वक्ता का प्रभाव है, क्योंकि दोषयुक्त पुरुष के कारण वेद में अप्रामाण्य आ सकता था, किन्तु जब वह पुरुषकृत ही नहीं है तो फिर अप्रामाण्य आने की बात ही नहीं रहती, सो इसका खण्डन करने के लिये ही आचार्य ने यह अनुमान उपस्थित किया है कि वेद से उत्पन्न हुई बुद्धि [ज्ञान] प्रमाण है ( पक्ष ) क्योंकि वह दोषों के कारणों को बिना हटाये ही उत्पन्न हुई है ( हेतु ) यह " अनिराकृत दोष कारण प्रभवत्वात् " हेतु प्रसिद्ध दोष युक्त नहीं है । वेद में गुणवान् वक्ता का प्रभाव है, और इसी कारण वहां दोषों का अभाव भी प्रसिद्ध है । दोषों का प्रभाव नहीं होने के कारण वेद में अप्रामाण्य ही सिद्ध होना
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