________________
प्रामाण्यवादः
४२७
नापि स्वकार्ये ; तत्रापि हि किं तत्संवादप्रत्ययमपेक्षते, कारणगुणान् वा ? प्रथमपक्षे चक्रकप्रसङ्गः-प्रमाणस्य हि स्वकार्ये प्रवृत्तौ सत्यामर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, तस्यां चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिलक्षणः संवादः; तत्सद्भावे च संवादमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्तेत । भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य तत्तत्र प्रवर्त्तते; इत्यप्यनुपपन्नम् ; तस्यासत्त्वेन स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं विज्ञानं प्रति सहकारित्वायोगात् ।
द्वितीयपक्षेऽपि गृहीताः स्वकारणगुणा: तस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वं प्रतिपद्यन्ते, अगृहीता वा ? न तावदुत्तरः पक्षः; प्रतिप्रसङ्गात् । प्रथमपक्षेऽनवस्था-स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं हि
है सो वह ज्ञान को अपने कार्य में प्रवृत्ति कराने के लिये सहायक नहीं बन सकता है जो अभी पैदा ही नहीं हुआ है वह वर्तमान ज्ञान में क्या सहायता पहुंचायेगा ? कुछ भी नहीं । प्रमाण को स्वकार्य में कारणों के गुणों की अपेक्षा होती है ऐसा जो दूसरा विकल्प है सो इस पर हम पूछते हैं कि प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्ति कराने के लिये सहायता पहुंचानेवाले कारणों ( इन्द्रियों) के गुण हैं वे ग्रहण किये हुए [जाने हुए] हैं कि नहीं ? यदि द्वितीय पक्ष कहा जाय कि वे गुण ग्रहण किये हुए नहीं हैं तो अतिप्रसंग होगा-अर्थात् अन्य प्रमाणके जो हैं उनके गुण भी हमारे लिये हमारे ज्ञान में सहायक बन सकते हैं, क्योंकि वे गुण भी तो अगृहीत हैं। पहला पक्ष-प्रमाणके कारणों के गुण गृहीत हैं [जाने हुए हैं तो इस पक्ष में अनवस्था प्रावेगी । वह ऐसेप्रमाण जब अपने प्रामाण्य के कारण जो इन्द्रियों के गुण हैं उनके ज्ञान की अपेक्षा लेकर निजी कार्य के करने में प्रवृत्ति करता है सो कारणों के गुणों का जो ज्ञान है वह जिस ज्ञान से होता है वह भी अपने कारणों के गुणों की अपेक्षा रखकर ही अपना कार्य जो प्रथमप्रमाण के कारणगुणों को जानना है उसे करेगा, तथा यह जो दूसरे नम्बर का कारण गुणों को जाननेवाला ज्ञान है वह भी अपने कारणगुण के ज्ञानकी अपेक्षा लेकर प्रवर्तित हो सकेगा। भावार्थ- जैसे किसी को "यह जल है" ऐसा ज्ञान हुआ, अब उस प्रमाणभूत ज्ञान का कार्य ओ उस जल में प्रवृत्ति करनारूप है उसमें प्रवृत्ति होने के लिये अपने कारणगुण के ज्ञान की अपेक्षा लेनी पड़ेगी कि मेरे इस जलज्ञान का कारण नेत्र हैं इसके गुण स्वच्छता आदि हैं-मेरी अांखें निर्मल हैं ऐसा ज्ञान होगा, तब जल में उसकी प्रवृत्ति हो सकेगी, तथा ऐसा ज्ञान उसे कोई बतायेगा तभी होगा, कि तुम्हारी आंखें साफ-निर्दोष हैं इत्यादि, पुनः वह बतानेवाले व्यक्ति का ज्ञान भी प्रामाणिक होना चाहिये, अत: उसके ज्ञान की सत्यता अर्थात् बतलाने वाले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org