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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे किञ्च, अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा शक्तिः प्रामाण्यम्, शक्तयश्च भावानां सत(स्वत) एवोत्पद्यन्ते नोत्पादककारणाधीनाः । तदुक्तम्-- "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्य मिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तु मन्येन पार्यते ॥" [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४७ ] न चैतत्सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते; किन्तु यः कार्यगतो धर्मः कारणे समस्ति स कार्यवत्तत एवोदयमासादयति यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपादयो घटेपि मृत्पिण्डादुपजायमाने मृत्पिण्ड यदि ज्ञानकी उत्पत्ति के अनंतर प्रमाणता आती है और ज्ञान के उत्पादक कारणों से उसमें प्रामाण्य नहीं आता है अन्य कारण से आता है, ऐसा कहा जाय तो यह कहना दिवाल के बननेके बाद उस पर चित्र बनाया जाता है उसके समान होगा अर्थात् दोनों का समय और कारण पृथक् पृथक् सिद्ध होगा। तथा प्रमाण की उत्पत्ति होने पर भी प्रमाणता उत्पन्न नहीं होती है और प्रमाण के कारणकलाप के अतिरिक्त कारण के द्वारा वह पैदा होती है इस प्रकार स्वीकार किया जाय तो ज्ञानरूप प्रमाण और प्रामाण्य में विरुद्ध दो धर्म-उत्पन्नत्व और अनुत्पन्नत्व पैदा हो जाने से एवं प्रमाण और प्रामाण्य के कारणों में भेद हो जाने से प्रमाण और प्रामाण्य में महान भेद पड़ेगा ? [ जो किसी भी वादी प्रतिवादी को इष्ट नहीं है ] । जैन को एक बात और यह समझानी है कि ज्ञान में पदार्थ को जैसा का तैसा जाननेरूप जो सामर्थ्य है वही प्रामाण्य है सो ऐसी जो शक्तियां पदार्थों में हुआ करती हैं वे स्वतः ही हुआ करती हैं, उनके लिये अन्य उत्पादक कारण की जरूरत नहीं होती है, कहा भी है-विश्व में जितने भी प्रमाण हैं उनमें प्रामाण्य स्वत: ही रहता है ऐसा बिलकुल निश्चय करना चाहिये, क्योंकि जिनमें स्वत: वैसी शक्ति नहीं है तो अन्य कारण से भी उसमें वह शक्ति पा नहीं सकती, ऐसा नियम है, इस मीमांसाश्लोकवात्तिक के श्लोक से ही निश्चय होता है कि प्रमाण में प्रामाण्यभूत शक्ति स्वतः है। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि इस तरह मानने में तो सांख्य के सत्कार्यवाद का प्रसंग आता है ? सो इस तरह की शंका करना भी ठीक नहीं है, इस विषय को हम अच्छी तरह से उदाहरण पूर्वक समझाते हैं, सुनिये ! कार्य में जो स्वभाव रहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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