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________________ ४०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे से भिन्न किसी अन्य कारण से ही प्रामाण्य आता है ऐसा मानना सदोष है, यहां कोई ऐसा कहे कि मीमांसक ज्ञान में प्रामाण्य का भले ही स्वत: होना स्वीकार करें, किन्तु उसमें अप्रामाण्य तो परतः होना मानते हैं तो फिर उस परतः अप्रामाण्य में भी तो अनवस्था दोष आवेगा ? सो इस प्रकार की उत्पन्न हुई शंका का समाधान इस प्रकार से है "नहि पराधीनत्वमात्रेणानवस्था भवति सजातीयापेक्षायां ह्यनवस्था भवति तेन यदि प्रमाणान्तरायत्तप्रामाण्यवदप्रमाणान्तरायत्तमप्रामाण्यं स्यात्ततः स्यादनवस्था। तत्तु प्रमाणभूतार्थान्यथ त्वदोषज्ञानाधीनम् । प्रामाण्यं च स्वतः इति नानवस्था। ____मीमांसक श्लोक ५६ टीका पृ० ४७ अर्थ- जो पर से होवे या पराधीन होवे इतने मात्र से प्रमाण या अप्रमाण में अनवस्था आती है सो ऐसी बात तो है नहीं। कारण कि अनवस्था का कारण तो सजातीय अन्य अन्य प्रमाण आदि की अपेक्षा होती है । अर्थात् किसी विवक्षित एक प्रमाण का प्रामाण्य अन्य सजातीय प्रामाण्य के आधीन होवे अथवा एक अप्रपाण का अप्रामाण्य अन्य सजातीय अप्रामाण्य के ही आधीन होवे तो अनवस्थादूषण आ सकता है, किन्तु अप्रामाण्य का कारण तो पदार्थ को अन्यथारूप से बतानेवाला दोषज्ञान है जो कि प्रमाणभूत है । प्रमाण में प्रामाण्य तो स्वत: है ही, अत: अप्रामाण्य पर से मानने में अनवस्था नहीं पाती है । ऐसी बात प्रामाण्य के विषय में हो नहीं सकती, क्योंकि प्रमाण की प्रमाणता बताने वाला ज्ञान यदि प्रमाणभूत है तो उसमें प्रामाण्य कहां से आया यह बतलाना पड़ेगा, कोई कहे कि उस दूसरे प्रमाण में तो स्वतः प्रामाण्य पाया है तो पहिले में भी स्वत: प्रामाण्य मानना होगा, और वह अन्य प्रमाण से आया है ऐसा कहो तो अनवस्था आयेगी ही। यदि उस विवक्षित प्रमाण में प्रामाण्य अन्य प्रमाण से नहीं आकर अप्रमाण से आता है ऐसा कहो तो वह बन नहीं सकता, क्योंकि प्रमाण में प्रामाण्य अप्रमाण से होना असंभव है । कहीं मिथ्याज्ञान से सत्य ज्ञान की सत्यता सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। अत: हम मीमांसक परतः अप्रामाण्य मानते हैं। इसमें अनवस्था दोष नहीं आता है । और जो जैन अादि प्रवादी प्रामाण्य परतः मानते हैं उनके यहां पर तो अनवस्थादूषण अवश्य ही उपस्थित होता है। मतलब यह है कि प्रमाण की प्रमाणता पर से सिद्ध होना कहें तो वह पर तो प्रमाणभूत सजातीय ज्ञान ही होना चाहिये, किन्तु अप्रामाण्य के लिये ऐसे सजातीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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