________________
ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद:
३८७
प्रतीयात्' अप्रतिपद्य वा । प्रथमपक्षे त्रिविषयं ज्ञानान्तरं प्रसज्येत । द्वितीयपक्षे तु अतिप्रसङ्गः 'मयाऽज्ञातमेवादृष्ट सुखादीनि करोति' इत्यपि तज्जानीयादविशेषात् ।
अतः द्वितीयज्ञान हुआ इत्यादि ।
योग से हमारा प्रश्न है कि अर्थज्ञान को, अर्थ को और अपने को जानकर फिर वह द्वितीयज्ञान क्या ऐसी प्रतीति करता है कि मेरे द्वारा अज्ञात रहकर ही यह प्रथम अर्थज्ञान पदार्थ को जानता है यदि ऐसी प्रतीति करता है तो वह ज्ञानान्तर एक प्रथम पदार्थ ज्ञान को दूसरे पदार्थ को और तीसरे अपने आपको इस प्रकार के तीन विषयों को जानने के कारण तीन विषयवाला हो गया, पर ऐसा तीन विषयवाला ज्ञान प्रापने माना नहीं है । अत: ऐसा मानने में अपसिद्धान्त का प्रसंग पाता है अर्थात तुम्हारे मान्य सिद्धान्त से विपरीत बात-(ज्ञान में स्वसंविदितता) सिद्ध होती है जो अनिष्टकारी है । दूसरापक्ष-अर्थज्ञान को अर्थ को, और अपने को वह द्वितीय ज्ञान ग्रहण नहीं करता है अर्थात् जानता नहीं है और मेरे द्वारा अज्ञात ही रहकर इस प्रथम ज्ञान ने पदार्थ को जाना है, इस तरह से यदि मानते हो तो अतिप्रसंग होगा, मतलब-यदि प्रथमज्ञान मेरे से अज्ञात रहकर ही पदार्थ को जानता है तो मेरे द्वारा अज्ञात रहकर ही अदृष्ट जो पुण्यपापस्वरूप है वह सुख दुःख को करता है इस प्रकार का ज्ञान भी उसी द्वितीयज्ञान से हो जायगा, क्योंकि तीनों को अर्थज्ञान; अर्थ और स्वयं अपने को जानने की जरूरत जैसे वहां नहीं है वैसे यहां भी अपने स्वयं को, अदृष्ट, और सुखादि को जानने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिये ।
विशेषार्थ-जब ईश्वर या अन्य पुरुष में तीन ज्ञानों की कल्पना योग करेंगे तो वहां बड़े आपत्ति के प्रसंग आवेंगे । प्रथमज्ञान पदार्थ को जानता है, उसे दूसरा ज्ञान जानता है और उसे कोई तीसरा ज्ञान जानता है, तब अनवस्था आती है ऐसा तो पहिले ही कह पाये हैं, अब दो ज्ञानों की कल्पना भी गलत है, कैसे, सो बताते हैंप्रथमज्ञान पदार्थ को जानता है फिर उस प्रथमज्ञान को तथा पदार्थ को और अपने
आपको इन तीनों को द्वितीयज्ञान जानता है सो ऐसा जानने पर तो वह दूसराज्ञान साक्षात् ही स्वसंविदित बन जाता है; जो स्वसंविदितपना यौगमत में इष्ट नहीं है, यदि दसराज्ञान इन विषयों को नहीं जानता है तो अज्ञान अदृष्ट आदि भी सुखादि को उत्पन्न करते हैं इस बात को भी मानना चाहिये, इसलिये ज्ञानको स्वसंविदित मानना श्रेयस्कर है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org