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________________ ३८४ प्रमेयकमलमार्तण्डे समवायनिषेधात्तदविशेषाच्च। 'स्वकार्यम्' इत्यप्यसम्यक् ; समवायनिषेधे तदाधेयतयोत्पादस्याप्यसिद्ध। जनकत्वमात्रेण तत्त्वे दिक्कालादौ तत्प्रसङ्गः । नित्यज्ञानं चेश्वरस्यापि न स्यात् ततः स्वतो ज्ञानं प्रत्यक्षम् अन्यथोक्तदोषानुषङ्गः । ननु ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेपि नानवस्था, अर्थज्ञानस्य द्वितीयेनास्यापि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्धरपरज्ञानकल्पनया प्रयोजनाभावात् । अर्थजिज्ञासायां ह्यर्थे ज्ञानम्, ज्ञान जिज्ञासायां तु ज्ञाने, प्रतीतेरे योग-जो अपने ज्ञान के द्वारा ग्रहण किया हुमा पदार्थ होता है वही अपने प्रत्यक्ष होता है, हर किसी के प्रत्यक्ष के विषय अपने प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता। जैन- यह कथन असंगत है, जब आपके मत में ज्ञान स्वसंविदित ही नहीं है तब यह अपना ज्ञान है ऐसा सिद्ध ही नहीं हो सकता । यौग-जो ज्ञान अपने में (-अात्मा में) समवेत (समवाय से संबन्धित है) है वह अपना कहलाता है। जैन-यह बात भी बेकार है । क्योंकि समवाय का तो हम अागे खंडन करने वाले हैं । तथा समवाय तो सर्वत्र आत्मा में व्यापक होने से समान है । उसको लेकर अपना ज्ञान और पराया ज्ञान ऐसा विभाग हो नहीं सकता। यौग-अपनी प्रात्मा का जो कार्य है वह अपना ज्ञान है अर्थात् जो अपने आत्मारूप कारण से हुया है वह अपना ज्ञान है इस तरह से विभाग बन जाता है। जैन यह कथन भी प्रयुक्त है । कैसे सो बतलाते हैं-समवाय का तो निषेध कर दिया है, इसलिये इस एक विवक्षित आत्मा में ही यह ज्ञान आधेयरूप से उत्पन्न होता है ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता । यदि ज्ञान की उत्पत्ति का निमित्त होने मात्र से अपना और पराया ऐसा विभाग होता है ऐसा मानोगे तो दिशा, आकाश, काल आदि का भी ज्ञान है, ऐसा कहलावेगा। क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति में उन दिशा प्रादिकों को भी आपने निमित्त माना है । एक दोष यह भी आवेगा-कि अपना कार्य होने से ज्ञान अपना कहलाता है तो ज्ञान प्रनित्य बन जावेगा, फिर तो ईश्वर के ज्ञान को भी नित्य नहीं कह सकेंगे। इसलिये ज्ञान स्वयं ही प्रत्यक्ष हो जाता है ऐसा मानना चाहिये। अन्यथा पहिले कहे गये हुए अनवस्था आदि दोष आते हैं । योग-ज्ञान अन्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है तो अनवस्था दोष आता है ऐसा आपने कहा सो ठीक नहीं है, कैसे ? सो समझाते हैं-प्रथम ज्ञान तो पदार्थों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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