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________________ ३८२ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे मेव स्वविषये प्रमितिमुत्पादयेत्तत एव । अथ चक्षुरादिकमेवाज्ञातं स्वविषये प्रमितिनिमित्तम्, न लिङ्गादिकं तत्तु ज्ञातमेव नान्यथाऽतो नोभयत्रोभयथाप्रसङ्गः प्रतीतिविरोधात् नन्वेवं यथा अर्थज्ञानं ज्ञातमर्थे ज्ञप्तिनिमित्तम्, तथा ज्ञानज्ञानमपि ज्ञानेऽस्तु तत्राप्युभयथापरिकल्पने प्रतीतिविरोधाविशेषात् । यथैव हि - 'विवादापन्न चक्षुराद्यज्ञातमेवार्थे ज्ञप्तिनिमित्तं तत्त्वादस्मच्चक्षुरादिवत् । लिङ्गादिकं तु अपने विषय में ज्ञान पैदा करता है, ऐसा मानने पर तो लिङ्गज्ञान ( - श्रनुमानज्ञान ) शब्द अर्थात् आगमको विषय करनेवाला श्रागमप्रमाण, सादृश्य को विषय करनेवाला उपमाप्रमाण, ये तीनों प्रमाणज्ञान भी स्वयं किसी से नहीं जाने हुए रहकर ही अपने: विषय जो अनुमेय, शब्द और सादृश्य हैं उनमें ज्ञान को उत्पन्न करेंगे । फिर उन लिङ्गः अर्थात हेतु आदि की जानकारी प्राप्त करना बेकार ही है । - योग- - ज्ञान के जनक दोनों प्रकार से उपलब्ध होते हैं अर्थातु कोई ज्ञान के कारण स्वयं अज्ञात रहकर ज्ञान को पैदा करते हैं और कोई कारण ज्ञात होकर ज्ञान को पैदा करते हैं । अतः कोई दोष नहीं है । जैन - ऐसा स्वीकार करने पर तो हम कह सकते हैं कि कुछ लिङ्ग प्रादिः कारण तो अज्ञात रहकर ही अपने विषय जो अनुमेयादि हैं उनमें प्रमिति ( - जानकारी ) को पैदा करते हैं और कुछ चक्षु आदि कारण ज्ञात रहकर अपने रूपादि विषयों में ज्ञान को पैदा करते हैं । क्योंकि उभयथा - दोनों प्रकार से ज्ञात और अज्ञात प्रकार से प्रमिति पैदा होती है । ऐसा आपका कहना है । योग - देखिये ! आप विपरीत प्रकार से कह रहे हैं, दोनों प्रकार से ज्ञान होता है, किन्तु चक्षु आदि तो स्वयं अज्ञात रहकर अपने विषय में प्रमिति पैदा करते हैं और लिंग आदि कारण तो ऐसे हैं कि वे अज्ञात रहकर प्रमिति को पैदा नहीं कर सकते हैं । अतः लिंगादि और चक्षु प्रादि दोनों ही कारणों में दोनों ज्ञात और अज्ञात प्रकार से प्रमिति पैदा करने रूप प्रसंग या ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसा माने तो साक्षातु प्रतीति में विरोध आता है । अर्थात् इस तरह से प्रतीत नहीं होता है । जैन - यदि ऐसी बात है तो जिस प्रकार होकर ही पदार्थों में प्रमिति को पैदा करता है उसी ज्ञान को जाननेवाला ज्ञान भी ज्ञात रहकर ही उस उन ज्ञानों के विषय में भी दोनों अज्ञात और ज्ञात की कल्पना करने में प्रतीति का पदार्थों को जानने वाला ज्ञान ज्ञात प्रकार उस पदार्थ को जाननेवाले प्रथमज्ञान को जान सकेगा । वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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