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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे ज्ञानं स्वपरप्रकाशात्मकं ज्ञानत्वान्महेश्वरज्ञानवत्, अव्यवधानेनार्थप्रकाशकत्वाद्वा, अर्थग्रहणात्मकत्वाद्वा तद्वदेव, यत्पुनः स्वपरप्रकाशात्मकं न भवति न तद् ज्ञानम् अव्यवधानेनार्थप्रकाशकम् अर्थग्रहरणात्मक वा, यथा चक्षुरादि। आश्रयासिद्धश्च 'प्रमेयत्वात्' इत्ययं हेतुः, धर्मिणो ज्ञानस्यासिद्ध: । तत्सिद्धिः खलु प्रत्यक्षतः, अनुमानतो वा प्रमाणान्तरस्यात्रानधिकारात् ? तत्र न तावत्प्रत्यक्षतः; तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वा आवश्यक है, अब इसी को अनुमान से सिद्ध करते हैं-ज्ञान स्व और पर को जानता है (साध्य), क्योंकि उसमें ज्ञानपना है, (हेतु) । जैसे महेश्वर का ज्ञान स्वपर का जानने वाला है, (दृष्टान्त) । अथवा–विना व्यवधान के वह पदार्थों को प्रकाशित करता है, अथवा पदार्थों को ग्रहण करने का-( जानने का )-उसका स्वभाव है, इसलिये ज्ञान स्वपरप्रकाशक स्वभाववाला है ऐसा सिद्ध होता है । भावार्थ-"ज्ञानत्वात्, अव्यवधानेन अर्थप्रकाशकत्वात्, अर्थग्रहणात्मकत्वात्" इन तीन हेतुओं के द्वारा ज्ञान में स्वपरप्रकाशकता सिद्ध हो जाती है, तीनों ही हेतु वाले अनुमानों में उदाहरण' वही महेश्वर का है, ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, क्योंकि वह ज्ञान है, अव्यवधानरूप से पदार्थ का प्रकाशक होता है, तथा पदार्थ को ग्रहण करने रूप स्वभाववाला है जैसा कि महेश्वर का ज्ञान, इस प्रकार हेतु का अपने साध्य के साथ अन्वय दिखाकर अब व्यतिरेक बताया जाता है - जो स्वपर प्रकाशक नहीं होता वह ज्ञान भी नहीं होता, तथा वह विना व्यवधान के पदार्थ को जानता नहीं है. और न उसमें अर्थ ग्रहण का स्वभाव ही होता है, जैसे कि चक्षु आदि इन्द्रियां, वे ज्ञानरूप नहीं हैं। इसीलिये व्यवधान के सद्भाव में पदार्थ को जानती नहीं हैं, एवं अर्थग्रहण स्वभाववाली भी नहीं हैं । अत: वे स्वपर को जानती नहीं हैं । इस प्रकार यहां तक योग के प्रमेयत्व हेतु में अनैकान्तिक दोष बतलाते हुए साथ ही ज्ञान में स्वपरप्रकाशपना सिद्ध किया, अब उसी प्रमेयत्व हेतु में असिद्धपना भी है ऐसा बताते हैं-प्रमेयत्व हेतु आश्रया सिद्ध भी है क्योंकि धर्मी स्वरूप जो ज्ञान है, उसकी अभी तक सिद्धि नहीं हुई है, मतलब-अनुमान में जो पक्ष होता है वह प्रसिद्ध होता है, प्रसिद्ध नहीं, अत: यहां पर ज्ञान स्वरूप पक्ष प्रसिद्ध होने से प्रमेयत्व हेतु आश्रयासिद्ध कहलाया । यदि उस ज्ञान की सिद्धि करना चाहें तो वह प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुमान प्रमाण से हो सकती है और प्रमाणों का तो यहां अधिकार ही नहीं है । अब यदि प्रत्यक्षप्रमाण से ज्ञान को सिद्ध करें तो बनता नहीं, क्योंकि आप इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष प्रमाण से उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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