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प्रमेयकमलमार्तण्डे
चेश्वरानीश्वरविभागाभाव:-स्वयमप्रत्यक्षेरणापीश्वरज्ञानेनाशेषविषयेणाशेषस्य प्राणिनोऽशेषार्थसाक्षाकरणप्रसङ्गात् । ततस्त द्विभागमिच्छता महेश्वरज्ञानं स्वतः प्रत्यक्षमभ्युपगन्तव्यमित्य नेनानेकान्तः सिद्धः ।
अथास्मदादिज्ञानापेक्षया ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं प्रमेयत्वहेतुना साध्यतेऽतो नेश्वरज्ञानेनाने. कान्तोऽस्यास्मदादिज्ञानाद्विशिष्टत्वात्, न खलु विशिष्ट दृष्ट धर्मम विशिष्ट पि योजयन् प्रेक्षावत्तां लभते निखिलार्थवेदित्वस्याप्यखिलज्ञानानां तद्वत्प्रसङ्गात् । इत्यप्यसमीचीनम् ; स्वभावावलम्बनात् ।
भावार्थ-ज्ञानको स्वसंवेद्य नहीं माननेसे दो दोष पाते हैं एक तो ईश्वर के सर्वज्ञपने का अभाव होता है और दूसरा दोष यह होता है कि जब तक ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष नहीं होता तब तक उस ज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थ भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकते हैं । तथा ज्ञान जब स्वयं को नहीं जानते हुए भी अन्य पदार्थ को जान सकता है तो देवदत्त के ज्ञानसे जिनदत्त को पदार्थ साक्षात्कार हो सकता है ? क्योंकि स्वयं को प्रत्यक्ष होने की जरूरत नहीं है।
जब अन्य व्यक्ति के ज्ञान द्वारा अन्य किसी को पदार्थका साक्षात्कार होना स्वीकार करते हैं तब ईश्वर और अनीश्वर का विभाग नहीं रह सकता, क्योंकि स्वयं को अप्रत्यक्ष ऐसे अशेषार्थ ग्राहक ईश्वर के ज्ञान के द्वारा सभी प्राणी संपूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार कर लेंगे ?
इसलिये यदि आप ईश्वर और अन्य जीवों में भेद मानना स्वीकार करते हो तो महेश्वर का ज्ञान स्वत: ही प्रत्यक्ष है ऐसा मानना जरूरी है, इस प्रकार महेश्वर का ज्ञान स्वयं वेद्य है ऐसा सिद्ध हुआ वह अन्यज्ञान से जाना जाता है ऐसा सिद्ध नहीं हुआ, इसलिये ही आपका वह प्रमेयत्व हेतु इस ईश्वर ज्ञान से व्यभिचरित हुआ-( अनैकान्तिक दोष युक्त हुआ । ज्ञान प्रमेय होने से दूसरे ज्ञान के द्वारा ही जाना जाता है ऐसा कहना गलत हुा । )
योग-हम जैसे सामान्य व्यक्ति के ज्ञान की अपेक्षा लेकर ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य माना है, उसी को प्रमेयत्व हेतु से हमने ज्ञानान्तरवेद्य सिद्ध किया है, न कि महेश्वर के ज्ञान को अत: प्रमेयत्व हेतु ईश्वर ज्ञान के साथ अनैकान्तिक नहीं होता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान तो हमारे ज्ञान से विशिष्ट स्वभाववाला है। जो विशिष्ट में पाये जाने वाले धर्म को-( स्वभाव को ) अविशिष्ट में लगा देता है अर्थात् ईश्वर के
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