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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद: ३५७ करते हैं अन्य से ही ग्रहण में आते हैं । अनवस्था की बात तो इसलिये खतम हो जाती है हर ज्ञान को अपने आपको अवश्य ही जानना जरूरी हो सो तो बात है नहीं । जहां कहीं शक्य हो और कदाचित् जिज्ञासा हो जाय कि यह अर्थ ग्राहक ज्ञान जानना चाहिये तो कभी उसका ग्रहण हो जाय, वरना तो पदार्थ को जाना और अर्थ - क्रियार्थी पुरुष प्रर्थक्रिया में प्रवृत्त हुआ, बस । इतना ही होता है, घड़े को देखा फूटा तो नहीं है खरीद लिया, फिर यह कौनसी मिट्टी बना है इत्यादि बेकार की चिन्ता करने की कौन को फुरसत है | मतलब - प्रत्येक ज्ञान को जानने की न तो इच्छा ही होती है और न जानना ही शक्य है । अतः ज्ञान को अन्य ज्ञान से वेद्य मानने में अनवस्था नहीं आती है इस प्रकार ज्ञान स्वव्यवसायी नहीं है यही बात सिद्ध होती है, "स्वात्मनि क्रियाविरोधः" अर्थात् अपने आप में क्रिया नहीं होती है, क्योंकि अपने आप में क्रिया होने का विरोध है, अतः ज्ञान अपने आपको ग्रहण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकता । ईश्वर हो चाहे सामान्यजन हो सभी का ज्ञान स्वग्राहक न होकर मात्र अन्य को ही जानने वाला हुआ करता है । हां इतनी बात जरूरी है कि हम लोग मीमांसक की तरह ज्ञान को अग्राह्य- किसी ज्ञान के द्वारा भी जानने योग्य नहीं है ऐसा नहीं मानते हैं, किन्तु वह अपने आपको जानने योग्य नहीं है, अन्य ज्ञान के द्वारा जानने योग्य है ऐसा मानते हैं और यही सिद्धान्त सत्य है । पूर्वपक्ष समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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