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________________ स्वसंवेदनज्ञानवाद: ३३६ पदार्थ हैं वे करणज्ञान के लिङ्ग नहीं बन सकते, क्योंकि उनमें वही दोष पाते हैं । सहकारी एकाग्र मन को हेतुरूप मानना तब होगा जब कि खुद मन की सिद्धि हो। __ "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्ग" यह आपके यहां मन का लक्षण किया गया है सो वह सिद्ध नहीं हो पाता, तथा-जैसे तैसे उसे मान भी लेवें तो वह बिलकुल सूक्ष्म है । जब वह नेत्रादि के साथ संबंध करता है तब उसी प्रात्मा में होने वाले मानस सुखादि का भी ज्ञान होना चाहिये संबंध तो है ही, मन का प्रात्मा से संबंध है और उसी आत्मा में सुखादि रहते हैं, अत: मन का किसी भी इन्द्रिय के साथ संबंध होते ही मानसिक सुखादि का अनुभव इन्द्रिय ज्ञान के बाद ही होने लग जायेगा, किन्तु आपको यह बात इष्ट नहीं है, क्योंकि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न होना इष्ट नहीं है । अदृष्ट के कारण एक साथ ज्ञान उत्पन्न करने की योग्यता मन में नहीं होती ऐसा कहो तो अदृष्ट ही उस युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति में करण हुआ मन नहीं हुआ । इस प्रकार करणज्ञान को परोक्ष मानने में अनेक दूषण प्राप्त होते हैं, अत: सही मार्ग यही है कि कर्ता, कर्म, करण, क्रिया ये चारों ही प्रत्यक्ष होते हैं-प्रतिभासित होते हैं ऐसा मानना चाहिये । इस प्रकार मीमांसकाभिमत परोक्षज्ञान के खंडन का सारांश समाप्त हुमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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